क्या है बद्रीनाथ का इतिहास, क्यों है चार धामों में से एक

भारत के चार प्रमुख धामों में से एक श्री बद्रीनाथ धाम भी है  जोकि उत्तराखंड के चमोली जिले में अलकनंदा नदी और सरस्वती नदी के संगम के किनारे नर और नारायण पर्वत की तलहटी में बसा हुआ है। बद्रीनाथ धाम के संदर्भ में मान्यता है कि यहां भगवान विष्णु ध्यान मुद्रा में विराजमान है इसलिए इस स्थान को भू बेकुण्ड भी कहा जाता है। मंदिर में  बद्रीनारायण की मूर्ति काली पत्थर की है जोकि 3.3 फीट लंबी है और लोगों का कहना है की आप जिस रूप में मूर्ति के दर्शन करते है तो मूर्ति आपको उसी रूप में दर्शन देती है। मान्यता अनुसार श्री बद्रीनाथ की स्थापना सतयुग में हुई थी और कालांतर में बौद्ध अनुयायियों के प्रभाव के कारण मंदिर पर संकट आता देख पुजारियों ने भगवान की मूर्ति को अलकनंदा नदी के किनारे स्थित नारद कुण्ड में डाल दिया था। जिसके बाद लगभग 8वि सदी में  शंकराचार्य जी ने नारद कुंड में से मूर्ति को निकाल कर पुनः मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया और विधिवत पूजा अर्चना की शुरुआत की और केरल प्रांत के नंबूदरी ब्राह्मणों को मंदिर का पुजारी नियुक्त किया उन्हें आम बोलचाल की भाषा में रावल नाम से जाना जाता है। वर्तमान में श्री ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी शंकराचार्य द्वारा स्थापित इस परंपरा का निर्वहन कर रहे है। हिन्दू मान्यता के अनुसार भगवान केदारनाथ धाम के दर्शन के बाद श्री बद्रीनाथ धाम के दर्शन का विशेष महत्व है क्योंकी  कहा जाता है की भगवान नर-नारायण के दर्शन करने के बाद मनुष्य अपने सारे पापों से मुक्त हो कर अंत में मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। भगवान विष्णु की कृपा पाने के लिए पूरी श्रद्धा जो भी बद्रीनाथ जाते है तो भगवान विष्णु उनकी हर मनोकामना को पूरी करते है।

बद्रीनाथ का रहस्य 

बद्रीनाथ धाम के साथ काफी रहस्य भी छुप रखे है कहा जाता है की पुराणों के अनुसार जब श्री भगवान विष्णु अपने ध्यान में विलीन थे तब उस समय बहुत ज्यादा बर्फ गिरने लग गई थी जिसकी वजह से पूरा मंदिर बर्फ से ढक गया था जिस कारण माता लक्ष्मी को श्री विष्णु जी की बहुत चिंता होने लगी तभी माता लक्ष्मी ने  बद्री यानी एक बेर के पेड़  का रूप धारण कर लिया था जिससे भगवान विष्णु पर गिरने वाली बर्फ पेड़ के ऊपर गिरने लगी जिससे विष्णु जी हिमपात से बच गए थे पर  जब भगवान काफी सालों के बाद ध्यान मुद्रा  से बाहर आए तो लक्ष्मी जी की यह हालत देख के बहुत  ज्यादा भावुक हो गए और उन्होंने देवी जी से कहा की इतनी कठोर तपस्या में वो भी उनके साथ थी  तब भगवान विष्णु ने वरदान देते हुए कहा की आज से लोग इस जगह को बद्रीनाथ के नाम से जानेंगे। बद्रीनाथ का शाब्दिक अर्थ होता है बद्री के नाथ यानि लक्ष्मी जी के पति। जहा बद्री का संबंध लक्ष्मी जी से है। 

बद्रीनाथ की पूजा विधान      

पुराणों में कहा गया है कि इस संसार में अनेक प्रकार के तीर्थ स्थान हुए है किन्तु भगवान बद्रीनाथ के समान तीर्थ ना  तो आज तक कोई हुआ है ना ही कभी होगा। आए बात करते है बद्रीनाथ में होने वाली पूजा पद्धति की शंकराचार्य जी के द्वारा स्थापित की गई पूजा पद्धति से ही आज भी बद्रीनाथ में पूजा अर्चना का कार्य संपादित होता है। मंदिर में मुख्य गर्भगृह में भगवान की मूर्ति की पूजा से संबंधित सभी कार्य को रावल जी को करने का अधिकार है। मंदिर में संचालित होने वाली और गतिविधियों को मुख्य रूप से डिमरी पंचायत और अन्य तीर्थ पुरोहितों के देख रेख में होती है। भगवान बद्रीनाथ की पूजा वर्ष में 6 महीने ग्रीष्म काल में होती है जोकी अप्रैल से नवंबर तक होती है मान्यता है की एक बार धाम में पूजा को लेकर देवताओ और मनुष्यों के बीच बहस शुरू हो गई थी जिसका समाधान स्वयं  भगवान विष्णु ने करते हुए कहा की जब उच्च हिमालय क्षेत्र बर्फ से ढक जाएंगे और जब इस क्षेत्र में परिस्थितियां मनुष्यों की प्रतिकूल होगी तब शीतकाल में पूजा का अधिकार देवताओं के पास होगा जिसमें नारद जी पुजारी के रूप में यहां पूजा करेंगे इसके ठीक विपरीत जब परिस्थितियां जीवन यापन करने के लिए अनुकूल होगा तब ग्रीष्म काल में पूजा का अधिकार मनुष्य के पास आ जाएगा।

बद्रीनाथ  के कपाट खुलने की विधि 

बद्रीनाथ धाम खुलने की तिथि बसंत पंचमी के शुभ अवसर पर टिहरी स्थित नरेंद्र नगर राज दरबार से गढ़वाल के राजा के सानिध्य में घोषित होती है। सर्वप्रथम तेल कलश को जोशीमठ स्थित नरसिंह मंदिर से पांडुकेश्वर लेकर जाया जाता है। प्राचीन काल से ही परंपरा रही है की धाम के कपाट खुलने की तिथि की घोषणा से पूर्व तेल कलश को जोशीमठ से पांडुकेश्वर के पश्चात नरसिंह मंदिर से डिम्मर गाँव होते हुए टिहरी आज दरबार लेकर जाया जाता है। जहां वैदिक पूजा अर्चना के साथ ही पूरे विधि विधान से कपाट खुलने की घोषणा की टिहरी के राजा स्वयं करते है। धाम में कपाट खुलने से पूर्व तिल के तेल को पिरोया जाता है जिसकी अवधि 6 महीने के लिए होती है। शीतकाल में जब कपाट बंद होने पर भगवान बद्री विशाल और माता लक्ष्मी जी को देश के अंतिम ग़ाव माणा की कुंवारी कन्याओ को भेड़ के ऊन से बनाया हुआ कंबल पहाड़ी गाय के दूध से बनी घी में भिगोकर उड़ाया जाता है इसको कंबल की चोली कहा जाता है। कपाट खुलने के दिन यह कंबल प्रसाद के रूप में श्रद्धालुओ को दिया जाता है। यह भगवान बद्री विशाल और माता लक्ष्मी के बिछुड़ने का दिन भी होता है। इस काल के 6 महीने माता लक्ष्मी बद्री विशाल से दूर परिक्रमा स्थल पर विराजमान होकर दर्शन देती है।

बद्रीनाथ के कपाट बंद होने की विधि 

बद्रीनाथ के कपाट शीतकाल में पूरे  विधि विधान के साथ बंद कर दिए जाते है। शंकराचार्य  द्वारा स्थापित परंपरा के मुताबिक रावल दक्षिण भारत के ब्राह्मण परिवार से होता है। यात्रा के समय पर रावल ही बद्रीनाथ की पूजा करते है उनके अलावा बद्रीनाथ को कोई छू भी नहीं सकता। पर जब कपाट बंद होते है तब रावल को भी बद्रीनाथ में रुकने की इजाज़त नहीं होती और सब की तरह वह भी वापिस चले जाते है। यहां की ये मान्यता है की जब कपाट बंद होते है तब नारद और अन्य देवता बद्रीनाथ की पूजा अर्चना करते है। जिसड़ीं कपाट बंद होता है उस दिन बद्री विशाल को हजारों फूलों से सजाया जाता है और मुख्य पुजारी गर्भगृह को भी फूलों से सजाते है। पूजा के बाद मूर्तियों को गर्भगृह से बाहर लाया जाता है। इसके बाद रावल भी स्त्री वेश में लक्ष्मी की सखी बन कर लक्ष्मी की मूर्ति को बद्रीनाथ के सानिध्य में रखते है। 6 महीने तक लक्ष्मी बद्री विशाल के साथ उसी मंदिर में रहती है। कपाट बंद होने के दिन मूर्ति को घी में डुबोकर ऊनी कंबल में लपेटा जाता है। इसके बाद हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं द्वारा की जाने वाली जय- जयकार के साथ बद्रीनाथ के कपाट बंद कर दिए जाते है।

क्यों की जाती है बद्रीनाथ की यात्रा     

द्रीनाथ यात्रा के संदर्व में अनेक मत्त देखने को मिलते है कई विद्वान मानते है की धाम में स्थित तप्त कुंड में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते है तो वही बद्रीनाथ के दर्शन करने से मनुष्य 84 योनियों के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। धाम के पास ही भ्रम कपालि में अपने पितरों का तर्पण और पिंड दान करने से 7 पीढ़ी तक के पूर्वज मोक्ष को प्राप्त करते है और अकाल मृत्यु में मरे हुए लोगों की आत्मा को शांति मिलती है। ये वोही स्थान है जहा भगवान शिव को ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति मिली थी। फिर इसके नजदीक ही ब्यास गुफा ,गणेश गुफा, भीम पुल और सरस्वती  नदी के उदग़म स्थल के साथ ही स्वर्ग को जाने वाला रास्ता भी है जिससे ही युद्धईशटीर जी ने अपने शरीर के साथ ही स्वर्ग तक की यात्रा की थी। लोक मान्यता के अनुसार बद्रीनाथ के दर्शन के बिना चार धाम की यात्रा अधूरी मानी जाती है। लेकिन यदि कोई श्रद्धालु केदारनाथ की यात्रा करने आता है और बद्रीनाथ की यात्रा नहीं करता तो यात्रा दर्शन का पूरा फल प्राप्त नहीं होता है। 

कैसे करें बद्रीनाथ की यात्रा

बद्रीनाथ उत्तराखंड में चमोली जिले के पास जोशीमठ ब्लॉक में स्थित है। बद्रीनाथ की यात्रा करने के लिए सबसे पहले ऋषिकेश जाना होता है इधर से बद्रीनाथ की दूरी 294 किलोमीटर है। ऋषिकेश से बद्रीनाथ के लिए सीधी बस भी मिलती है और ऋषिकेश  से बद्रीनाथ तक का रास्ता पूरा का पूरा पहाड़ी से घिरा हुआ है जोकि बहुत ही सुंदर और देखने वाला होता है। यदि कोई विमान से जा रहा है तो जॉली ग्रांट एयरपोर्ट बद्रीनाथ से 311 किलोमीटर की दूरी पर है। वहा से आगे जाने के लिए टैक्सी लेनी होती है। बद्रीनाथ जाने के लिए परमिट मिलते है जिसको जोशीमठ के एमडी बनाते है। बद्रीनाथ में मंदिर में एंट्री करने के लिए अपना पहचान पत्र होना बहुत जरूरी है।

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