इस महीने जब विपक्षी दल कर्णाटक की राजधानी बेंगलुरु में मिलेंगे तो उनकी संख्या 24 होने का अंदाजा लगाया जा रहा है. पटना में हुयी पहली बैठक में १५ विपक्षी दलों ने हिस्सा लिया था. खबर है कि राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी भी इस बैठक में शामिल होंगे और कुछ एनी दल भी इस कुनबे को आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं. 15 से 24 तक की छलांग यदि विपक्षी गठबंधन लगा लेता है तो निश्चित ही यह एक मनोवैज्ञानिक बढ़त होगी और यही कारण है जिसने बीजेपी के रणनीतिकारों के माथे पर बल ला दिए हैं.
भाजपा की कोशिश है कि 18 जुलाई को महागठबंधन की बैठक होने के पहले NDA खेमा मजबूत दिखाई दे और इसलिए उसकी निगाहे कुछ ऐसे दलों पर टिकी हुयी हैं जो महागठबंधन का हिस्सा बनने की प्रक्रिया में हैं. महाराष्ट्र में एनसीपी का टूटना और बिहार में जीतनराम मांझी का नितीश सरकार से अलग होना इसी रणनीति की सफलता कही जानी चाहिए. 2019 के चुनावो के बाद NDA निश्चित तौर पर कमजोर पड़ा है और इसके तीन बड़े सहयोगी इससे अलग हो चुके हैं. पंजाब में शिरोमणि अकाली दल, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिव सेना और बिहार में जनता दल युनाईटेड एक एक करके NDA का साथ छोड़ चुके हैं. हालाकि बाद में हुए घटनाक्रम में शिवसेना टूटी और शिंदे गुट फिर से NDA का हिस्सा तो बन चुका है, लेकिन चुनावो में जनता ठाकरे और शिंदे के बीच किसे चुनेगी ये सवाल अभी बाकी है. महाराष्ट्र में कमोबेश यही स्थिति एनसीपी की भी हो गयी है. अजित पवार और शरद पवार के बीच जनता का समर्थन किसे है ये स्पष्ट नहीं है.
पंजाब में बदहाल भाजपा ने अपनी उम्मीदे एक बार फिर शिरोमणि अकाली दल के साथ जोड़ने की कवायदा जरूर की है मगर सामान नागरिक संहिता के मुद्दे पर अकाली दल ने कड़े तेवर दिखा दिए हैं.और ये भी स्पष्ट है कि अगर भाजपा UCC पर आगे बढती है तो अकाली दल NDA का हिस्सा नहीं बन पायेगा. पंजाब जैसे ही हालात तमिलनाडु में भी हो गए हैं. एआईडीएमके के नेता पलानिस्वामी ने UCC की आलोचना करते हुए लोकसभा चुनावो में सीट बंटवारे का जिक्र भी कर दिया. भाजपा तमिलनाडु में इस बार ज्यादा सीटें चाहती है. वित्त मंत्री निर्मला सीता रमण और विदेशमंत्री जयशंकर जैसे बड़े चेहरों को लोकसभा चुनावो में उतारा जा सकता है , ऐसे में एआईडीएमके के भीतर थोड़ी बेचैनी भी है, तमिलनाडु में दूसरी तरफ डीएमके और कांग्रेस का गठबंधन पहले से ही मजबूत है.
अपने मजबूत गढ़ उत्तर प्रदेश में भी भाजपा कई दलों को अपने ससाथ लाने में जुटी हुयी है. यूपी की राजनीति में पिछड़े वर्ग के वोटर ही फैसला करेंगे ये तय है. बीते लोकसभा चुनावो में भाजपा ने अपने गठबंधन को इस तरह साधा था कि इस वर्क का एक बहुत बड़ा हिस्सा उसे वोट कर रहा था. लेकिन विधानसभा चुनावो में ओम प्रकाश राजभर का अलग हो जाना और फिर अपना दल में हुयी टूट ने NDA को कमजोर कर दिया और भाजपा पचास से ज्यादा सीटें हार गयी.
बीते कुछ दिनों से राजभर और रालोद के NDA का हिस्सा बनने की खबरे जरुर चल रही हैं मगर जयंत चौधरी के ताजे रुख के बाद पार्टी नेता अब रालोद के संभावनाओं पर बोलने से बच रहे हैं. इसी तरह राजभर की दोहरी बातों ने भी एक संशय बना कर रखा हुआ है. हालाकि राजभर को सरकार का हिस्सा बनाने को ले कर मुख्यमंत्री योगी सहज नहीं हैं क्यूंकि योगी मंत्रिमंडल छोड़ने से पहले ओम प्रकाश राजभर ने योगी आदित्यनाथ को व्यक्तिगत निशाने पर रखा हुआ था.
यूपी में NDA का एक महत्वपूर्ण हिस्सा निषाद पार्टी भी है, इसके मुखिया संजय निषाद के रवैये से कोई दल कभी निश्चिन्त नहीं रह सकता, निषाद पार्टी को लोकसभा में पहली सफलता समाजवादी पार्टी के साथ मिली थी लेकिन बाद में वे भाजपा के साथ चले गए. जानकारों का मानना है कि संजय निषाद हवा का रुख भापने के साथ अपना फैसला लेंगे , हलाकि इस बीच उन्होंने लोकसभा की 6 सीटो के लिए अपना दावा NDA के सामने पेश कर दिया है.
यूपी में अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाली अपना दल (एस) अभी भी NDA का मजबूत हिस्सा बनी हुयी हैं. तो गोवा में महाराष्ट्र गोमान्तक पार्टी और महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी भी NDA के साथ है. ये बात अलग है कि इन पार्टियों के हिस्से में गिनीचुनी सीटें ही आती है. इसके अलावा उत्तर पूर्वी राज्यों की स्थानीय पार्टियाँ NDA का हिस्सा है.