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मण्डल-कमण्डल के बीच चुनावी समीकरण साधने की कवायद

देश की सियासत में मंडल दौर की वापसी के संकेत दिखने लगे हैं, सत्ता पक्ष और विपक्ष मंडल राजनीति के बदले स्वरूप में अपना दबदबा हासिल करने के लिए एक के बाद एक सियासी दांव चल रहे हैं, दूसरी तरफ बीजेपी की अगुआई में इसे काउंटर करने की कोशिश भी उसी तत्परता से की जा रही है, पहले नीट की परीक्षा में ओबीसी को लंबित आरक्षण दिया और अब केंद्र सरकार संविधान में संशोधन कर ओबीसी जातियों की पहचान के लिए राज्यों को अधिकार देने की तैयारी कर दी है, बदली सामाजिक सूरत में मंडल का नया दौर क्या उतना ही प्रभावी होगा, जितना नब्बे के दशक में था, इस पर अभी संदेह है,  5 अगस्त को मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने राममन्दिर शिलान्यास की बरसी के दिन अन्न वितरण कार्यक्रम का आयोजन कर कमण्डल के गढ़ से मण्डल में सेंध लगाने की कवायद की तो वहीं मण्डलवादी अखिलेश ने भी प्रदेश भऱ में साईकिल यात्रा निकाल कर सन्देश देने का प्रयास किया तो मायावती 2007 का फार्मूला अपनाकर ब्राह्मणों की हितैषी बनने का प्रयास करती दिखाई दे रही हैं

मंडल और कमंडल की लड़ाई जारी

देश मे पिछले 3 दशक से मंडल और कमंडल की लड़ाई जारी है, 1990 से मण्डलवादियों को मात देने के लिए भाजपा कमंडल की राजनीति करती रही, इसमे काफी हद तक उसे सफलता भी मिली, पार्टी 2 सांसदों से बढ़कर 303 तक पहुंच गई, इस बीच मंडल भी अपना कमाल दिखाता रहा, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे तमाम राज्यों में मंडल के चलते ही मुलायम सिंह यादव, मायावती, लालू प्रसाद यादव, जैसे लोग राज करते रहे, 2013 में जब मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया गया था तो मोदी ने यह बात अच्छी तरह से समझ ली थी कि बिना मंडल को कमंडल में समाए काम चलने वाला नहीं, यही कारण है कि उन्होंने खुलकर कहा कि मैं पिछड़े वर्ग से आता हूँ इसीलिए लोग मुझे बढ़ने नही देना चाहते, इसका उन्हें भरपूर लाभ मिला और 2014 में पहली बार मोदी के नेतृत्व में भाजपा की बहुमत की सरकार बनी,  मंडल को कमंडल में समाने का फार्मूला इतना हिट हुआ कि अभी तक निर्बाध रूप से चलता जा रहा है…

मण्डलवादियों ने भी हार नही मानी है

मण्डलवादियों ने भी हार नही मानी है, मंडल के नाम पर लड़ाई लड़ने वालों ने भी समझ लिया है कि बिना कमंडल के आशीर्वाद से मंडल की लड़ाई आगे बढ़ने वाली नहीं, यही कारण है कि मंडल पर कमंडल का आशीर्वाद रूपी जल की छींटे डाली जा रहीं हैं, मायावती ने इसे पहले ही समझ लिया था, 2007 में उन्होंने ब्राह्मणों के साथ कॉम्बिनेशन बनाकर पहली बार बहुमत की सरकार बनाई, अब अखिलेश भी इसी फार्मूले को आजमाने की कोशिश कर रहे हैं, इसी फार्मूले की धार को तेज करने के लिए अखिलेश साइकिल लेकर निकले और नारा दिया 22 में बाइसिकिल

ओबीसी राजनीति

ओबीसी राजनीति के फिर से सामने आने के पीछे मूल मंशा यह है कि विपक्षी दल ओबीसी वोट में अपना वह दखल फिर से बढ़ाना चाहते हैं, जिसे बीजेपी ने उनसे हाल के सालों में छीना है। लेकिन इसके बहाने ओबीसी से जुड़े जो मसले निकल रहे हैं, उनके हल तलाशने होंगे, बीजेपी के लिए ऐसा करना आने वाले समय में चुनौतीपूर्ण होगा, जातीय जनगणना की मांग के पीछे क्षेत्रीय विपक्षी दलों का तर्क है कि ओबीसी को आबादी में उनके अनुपात के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं मिलता, नब्बे के दशक में मंडल कमिशन लागू होने के बाद से ओबीसी को सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण मिलता है। लेकिन कुछ साल पहले एक रिपोर्ट सामने आई, जिसमें कहा गया कि केंद्रीय कर्मचारियों में मात्र 12 फीसदी ओबीसी हैं

नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी ने 2014 के बाद नए सिरे से सोशल इंजीनियरिंग की और ओबीसी को अपना सबसे मजबूत वोट बैंक बनाया, हिंदुत्व-राष्ट्रवाद के साथ पिछड़ी जातियों के लिए एक के बाद एक कदम उठाकर उनके बीच मजबूत पैठ बनाई, इससे पहले बीजेपी को उसके आलोचक और विरोधी शहरी या सवर्णों की पार्टी का टैग देते थे, ओबीसी को साथ करने की मुहिम से इसमें बड़ा बदलाव आया, खासकर बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पार्टी के लिए चुनौती और बड़ी थी कि लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, मायावती और अखिलेश यादव जैसे नेता पहले ही इनके बीच अपनी पकड़ बना चुके थे, लेकिन बीजेपी ने इनका प्रभुत्व तोड़ने के लिए अपनी सोशल इंजीनियरिंग की जो काफी हद तक सटीक साबित हुई, अब कमंडल के अंदर मंडल चलेगा या मंडल पर कमंडल की बूंदों के रूप में आशीर्वाद मिलेगा यह देखना दिलचस्प होगा

Prabuddh Singh Chauhan

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