जानिए क्या है जोशीमठ का धार्मिक महत्व?

चमोली। उत्तराखंड के चमोली में स्थित जोशीमठ को भगवान बद्रीनाथ की शीतकालीन गद्दी कहते हैं। दरअसल, सर्दी में बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद होने के बाद बद्री विशाल की मूर्ति को जोशीमठ के वासुदेव मंदिर में रखा जाता है। सनातन मान्यता के अनुसार, शंकराचार्य ने जोशीमठ में पहला ज्योतिर्मठ स्थापित किया था। इसे चार धामों का बेस कैंप भी कहते हैं।

जोशीमठ या ज्योतिर्मठ भारत  के उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित एक नगर है जहाँ हिन्दुओं की प्रसिद्ध ज्योतिष पीठ स्थित है। यहाँ 8वीं सदी में धर्मसुधारक आदि शंकराचार्य को ज्ञान प्राप्त हुआ और बद्रीनाथ मंदिर तथा देश के विभिन्न कोनों में तीन और मठों की स्थापना से पहले यहीं उन्होंने प्रथम मठ की स्थापना की।

जोशीमठ में आध्यात्मिकता की जड़ें गहरी हैं तथा यहां की संस्कृति भगवान विष्णु की पौराणिकता के इर्द-गिर्द बनी है। प्राचीन नरसिंह मंदिर में लोगों का सालभर लगातार आना-जाना रहता है। यहां बहुत सारे पूजित स्थल भी  हैं।

पांडुकेश्वर में पाये गये कत्यूरी राजा ललितशूर के तांब्रपत्र के अनुसार जोशीमठ कत्यूरी राजाओं की राजधानी थी, जिसका उस समय का नाम कार्तिकेयपुर था। लगता है कि एक क्षत्रिय सेनापति कंटुरा वासुदेव ने गढ़वाल की उत्तरी सीमा पर अपना शासन स्थापित किया तथा जोशीमठ में अपनी राजधानी बसायी। वासुदेव कत्यूरी ही कत्यूरी वंश का संस्थापक था। जिसने 7वीं से 11वीं सदी के बीच कुमाऊं एवं गढ़वाल पर शासन किया।

फिर भी हिंदुओं के लिये एक धार्मिक स्थल की प्रधानता के रूप में जोशीमठ, आदि शंकराचार्य की संबद्धता के कारण मान्य हुआ। जोशीमठ शब्द ज्योतिर्मठ शब्द का अपभ्रंश रूप है जिसे कभी-कभी ज्योतिषपीठ भी कहते हैं। इसे वर्तमान ईसा पूर्व 515 में आदि शंकराचार्य ने स्थापित किया था। उन्होंने यहां एक शहतूत के पेड़ के नीचे तप किया और यहीं उन्हें ज्योति या ज्ञान की प्राप्ति हुई। यहीं उन्होंने शंकर भाष्य की रचना की जो सनातन धर्म के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है।

गढ़वाल हिमालय का गजेटियर लिखने वाले अंग्रेज़ आईसीएस अफसर एचजी वॉल्टन ने 1910 के जिस जोशीमठ का ज़िक्र किया है, वह थोड़े से मकानों, रैनबसेरों, मंदिरों और चौरस पत्थरों से बनाए गए नगर चौक वाला एक अधसोया-सा कस्बा है, जिसकी गलियों को व्यापार के मौसम में तिब्बत से व्यापार करने वाले व्यापारियों के याक और घोड़ों की घंटियां कभी-कभी गुंजाती होंगी। पुराने दिनों में इन व्यापारियों के चलते जोशीमठ एक संपन्न बाज़ार रहा होगा। अलबत्ता वॉल्टन के समय तक ये व्यापारी अपनी मंडियों को दक्षिण की तरफ यानी नंदप्रयाग और उससे भी आगे तक शिफ्ट कर चुके थे।

परंपरागत रूप से बद्रीनाथ के रावलों और अन्य कर्मचारियों के शीतकालीन आवास के रूप में विकसित हुए जोशीमठ ने धीरे-धीरे गढ़वाल को सुदूर सीमांत माणा और नीति घाटियों की महत्वपूर्ण बस्तियों से जोड़ने वाले मार्ग के एक महत्वपूर्ण पड़ाव का रूप ले लिया होगा। इस के बाशिंदों में पण्डे, छोटे-बड़े व्यापारी और खेती का काम करने वाले साधारण पहाड़ी लोग थे।
उत्तराखंड के गढ़वाल के पैनखंडा परगना में समुद्र की सतह से 6107 फीट की ऊँचाई पर, धौली और विष्णुगंगा के संगम से आधा किलोमीटर दूर जोशीमठ की उत्पत्ति की कहानी उन्हीं आदि शंकराचार्य से जुड़ी है, आठवीं-नवीं शताब्दियों में की गई जिनकी हिमालयी यात्राओं ने उत्तराखंड के धार्मिक भूगोल को व्यापक रूप से बदल दिया था।

 

 

दक्षिण भारत के केरल राज्य के त्रावणकोर के एक छोटे से गांव में जन्मे आदि शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन के प्रसार-प्रचार के उद्देश्य से बहुत छोटी आयु में अपनी मलयालम जड़ों से निकल कर सुदूर हिमालय की सुदीर्घ यात्राएँ कीं और असंख्य लोगों को अपना अनुयायी बनाया।
इन अनुयायियों के लिए उन्होंने चार दिशाओं में चार मठों का निर्माण किया- पूर्व में उड़ीसा के पुरी में वर्धन मठ, पश्चिम में द्वारिका का शारदा मठ, दक्षिण में मैसूर का श्रृंगेरी मठ और उत्तर में ज्योतिर्मठ यानी जोशीमठ। जोशीमठ के बाद बद्रीनाथ में नारायण के ध्वस्त मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य पूरा कराने के उपरान्त वे केदारनाथ गए, जहां 32 साल की छोटी सी उम्र में उनका देहांत हो गया।

जोशीमठ की ऐतिहासिक महत्ता इस जन-विश्वास में निहित है कि आधुनिक हिन्दू धर्म के महानतम धर्मगुरु माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने यहाँ शहतूत के एक पेड़ के नीचे समाधिस्थ रह कर दिव्य ज्ञान हासिल किया था। इसी कारण इसे ज्योतिर्धाम कहा गया | यह विशाल पेड़ आज भी फलता-फूलता देखा जा सकता है और इसे कल्पवृक्ष का नाम दे दिया गया है। फ़िलहाल इस वृक्ष से लगा मंदिर भी टूट चुका है और वह गुफा भी ध्वस्त हो चुकी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ शंकराचार्य ने साधना की थी।
जोशीमठ के बारे में अनेक धार्मिक मान्यताएँ प्रचलन में हैं। यहां भगवान नृसिंह का मंदिर है, जहां भक्त बालक प्रह्लाद ने तपस्या की थी। अनेक देवी-देवताओं के मंदिरों के अलावा यहाँ कई देवताओं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, भृंगी, ऋषि, सूर्य और प्रह्लाद के नाम पर अनेक कुंड भी हैं। ये तथ्य इस छोटे से पहाड़ी नगर को देश के धार्मिक मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण बिंदु बनाते हैं।

कुमाऊं-गढ़वाल के इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण तार भी इस सुंदर नगर से जुड़े हुए हैं। इस हिमालयी भू-भाग पर लंबे समय तक राज्य करने वाले कत्यूरी शासकों की पहली राजधानी भी यहीं थी और ज्योतिर्धाम कहलाती थी। कत्यूरी सम्राट श्री वासुदेव गिरिराज चक्र चूड़ामणि उर्फ़ राजा बासुदेव ने इसे अपनी सत्ता का केंद्र बनाया था।

एटकिंसन के मशहूर हिमालयन गजेटियर में सर एचएम एलियट के हवाले से फारसी इतिहासकार राशिद अल-दीन हमदानी के ग्रन्थ जमी-उल तवारीख का उल्लेख करते हुए कत्यूरी राजा बासुदेव के बारे में लिखा गया है कि वह जोशीमठ में कत्यूरी साम्राज्य का संस्थापक था। कालान्तर में इस राजधानी को कुमाऊं के पास बैजनाथ ले जाया गया।

कत्यूरों की राजधानी के जोशीमठ से बैजनाथ ले जाए जाने के पीछे क्या कारण रहा होगा, इस बाबत एक गाथा प्रचलित है। राजा वासुदेव का एक वंशज राजा शिकार खेलने गया हुआ था | उसकी अनुपस्थिति में मनुष्य का वेश धरे भगवान नृसिंह उसके महल में भिक्षा मांगने पहुंचे। रानी ने उनका आदर सत्कार किया और भोजन करा कर राजा के पलंग पर सुला दिया। राजा वापस लौटा तो अपने बिस्तर पर किसी अजनबी को सोता देख कर आग बबूला हो गया और उसने अपनी तलवार से नृसिंह की बांह पर वार किया।

बांह पर घाव हो गया जिससे रक्त के स्थान पर दूध बहने लगा, घबरा कर राजा ने रानी को बुलाया जिसने उसे बताया कि उनके घर आया भिक्षु साधारण मनुष्य नहीं भगवान था। राजा ने क्षमा मांगी और नृसिंह से अपने अपराध का दंड देने का आग्रह किया। नृसिंह ने राजा से कहा कि अपने किए के एवज में उसे ज्योतिर्धाम छोड़ कर अपनी राजधानी को कत्यूर घाटी अर्थात बैजनाथ ले जाना होगा।
उन्होंने आगे घोषणा की, वहां के मंदिर में मेरी जो मूर्ति होगी उसकी बांह पर भी ऐसा ही घाव दिखाई देगा। जिस दिन मेरी मूर्ति नष्ट होगी और उसकी बांह टूट कर गिर जाएगी, तुम्हारा साम्राज्य भी नष्ट हो जाएगा और दुनिया के राजाओं की सूची में से तुम्हारे वंश का नाम हट जाएगा। इसके बाद नृसिंह ग़ायब हो गए और राजा को कभी नहीं दिखाई दिए लेकिन उनकी बात का मान रखते हुए राजा ने वैसा ही किया।

इस कथा के एक दूसरे संस्करण में भगवान नृसिंह का स्थान आदि शंकराचार्य ले लेते हैं, जिनके साथ हुए धार्मिक विवादों के चलते कत्यूरी राजधानी को जोशीमठ से हटाया गया। एटकिंसन के गजेटियर में उल्लिखित इस गाथा के दूसरे संस्करण को लेकर आगे कयास लगाया गया है कि आदि शंकराचार्य द्वारा जोशीमठ में ज्योतिर्लिंग की स्थापना किए जाने के बाद ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच वर्चस्व कायम करने की होड़ चल रही थी जिसके दौरान सद्यः-प्रस्फुटित शैवमत के अनुयायियों ने दोनों को परास्त कर जनता के बीच अपनी धार्मिक श्रेष्ठता सिद्ध की।

जोशीमठ के मंदिर में रखी काले स्फटिक से बनी नृसिंह की मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि उसका बायां हाथ हर साल कमज़ोर होता जाता है। जनश्रुतियों में कत्यूरी राजा को मिले अभिशाप के आगे का हिस्सा यह माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु ने कहा था कि जिस दिन मूर्ति का हाथ पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो जाएगा, बद्रीनाथ धाम का रास्ता सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगा क्योंकि तब नर और नारायण पर्वत एक दूसरे में समा जाएंगे और भीषण भूस्खलन होगा। उसके बाद बद्रीनाथ के मंदिर को जोशीमठ से आगे भविष्य बद्री नामक स्थान पर ले जाना पड़ेगा।

 

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