देहरादून, पलायन की मार झेल रहा उत्तराखंड में यह सिलसिला थमता हुआ नहीं दिख रहा है। राज्य सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी यहां के गांव लगातार निर्जन होते जा रहे हैं। इन गांवों में राज्य के सीमांत गांव भी हैं। अन्य गांवों के साथ इन सीमांत गांवों का खाली होना बेहद चिंता का विषय है। लगातार खाली होते गांव इस बात का भी संकेत दे रहे हैं कि सरकार द्वारा पलायन को रोकने के लिए चलायी जा रही तमाम योजनाएं, पलायन रोकने में न काफी हैं।
2018 के बाद से करीब दो दर्जन गांवों से पलायन
राज्य में गांवों से हो रहे पलायन एक गंभीर स्थिति है। राज्य गठन से अब तक तमाम प्रयासों के बाद भी इसे रोका नहीं जा सका है। हालांकि पलायन की दर को कम जरूर किया गया है। पलायन आयोग की पूर्व की रिपोर्ट की बात करें तो इसके अनुसार राज्य गठन से वर्ष 2018 तक करीब 1702 गांवों से लोगों का पलायन हो चुका है। पलायन का औसत देखें तो इस दौरान 100 गांव प्रतिवर्ष पलायन की जद में जा चुके हैं। वहीं वर्ष 2018 से अबतक की ताजा रिपोर्ट देखें तो अब तक 24 और गांव निर्जन हुए हैं। जिसका औसत छः गांव प्रतिवर्ष है। इन आंकड़ों को देखकर पता चलता है कि राज्य में पलायन को रोकने में राज्य सरकार को काफी हद तक सफलता तो मिली है, मगर चुनौती अभी भी बरकरार है। आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार जो दो दर्जन गांव निर्जन हुए हैं, उनमें सीमांत के पिथौरागढ़, चमोली, चंपावत, अल्मोड़ा के एक दर्जन सीमांत गांव भी शामिल हैं। हालांकि राज्य में पलायन की स्थिती के बीच एक उम्मीद की किरण भी नजर आयी है। 2018 के बाद की आयोग की रिपोर्ट के मुताबित उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग, हरिद्वार, देहरादून, बागेश्वर और उधमसिंह नगर जिलों से कोई एक गांव भी पूूरी तरह से खाली नहीं हुआ है। जो पलायन को रोकने की दिशा की ओर एक सकारात्मक संकेत है।