दिवाली के अगले दिन पतंगबाजी क्यों? जानें क्यों कहा जाता है जमघट…

KNEWS DESK- भारत में पतंगबाजी सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और उत्सव का प्रतीक है। खासतौर पर दिवाली के अगले दिन देश के कई हिस्सों में रंग-बिरंगी पतंगें आसमान को सजाती हैं। हालांकि, इस परंपरा की जानकारी और इतिहास को लेकर लोगों के मन में अकसर भ्रम बना रहता है — क्या ये सिर्फ एक नया चलन है या सदियों पुरानी परंपरा? क्या यह पूरे देश में मनाया जाने वाला रिवाज़ है या कुछ खास क्षेत्रों तक सीमित है?

इस लेख में हम जानेंगे कि पतंगबाजी की शुरुआत कहां से हुई, भारत में यह कैसे आई, और दिवाली के ठीक बाद पतंग उड़ाने की परंपरा क्यों बनी।

इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के अनुसार, पतंगबाजी की शुरुआत प्राचीन चीन में हुई थी। वहां यह केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि सैन्य और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए भी उपयोग होती थी। प्रारंभिक पतंगें लकड़ी, बांस, रेशम और कागज़ से बनाई जाती थीं।

वक्त के साथ पतंगों का उपयोग आम जनता के बीच मनोरंजन के लिए बढ़ने लगा। बौद्ध भिक्षुओं, व्यापारियों और मध्यकालीन यात्रियों के ज़रिए यह परंपरा भारत समेत पूरे एशिया में फैली।

भारत में पतंगबाजी को लोकप्रिय बनाने में मुगल बादशाहों और नवाबों की भूमिका अहम रही। शाही दरबारों में पतंग उड़ाना एक शौक माना जाता था, और धीरे-धीरे यह आम जनता के बीच भी लोकप्रिय हो गया।
विशेषकर गुजरात, राजस्थान, पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पतंगबाजी त्योहारी परंपरा का हिस्सा बन गई।

सबसे बड़ा उदाहरण है मकर संक्रांति (उत्तरायण), जब गुजरात में अंतरराष्ट्रीय पतंग महोत्सव का आयोजन होता है। लेकिन पतंगबाजी मकर संक्रांति तक सीमित नहीं रही — बसंत पंचमी, स्वतंत्रता दिवस, पोंगल और दिवाली जैसे कई पर्वों से यह परंपरा जुड़ गई।