शिव शंकर सविता- सुबह के छह बजे हैं। सड़क पर हल्की ठंड है। मोबाइल पर नोटिफिकेशन की ‘टिन’ सुनते ही एक डिलीवरी बॉय बाइक स्टार्ट करता है। यही नोटिफिकेशन उसकी रोज़ी-रोटी है और यही उसकी सबसे बड़ी मजबूरी भी। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के इस दौर में भारत के लाखों गिग वर्कर्स इसी तरह ऐप की घंटी पर अपनी ज़िंदगी दौड़ा रहे हैं। कैब ड्राइवर हों, फूड डिलीवरी कर्मी, फ्रीलांसर या वेयरहाउस में काम करने वाले युवा गिग इकॉनमी आज रोजगार का नया चेहरा बन चुकी है, लेकिन इस चेहरे के पीछे असुरक्षा की गहरी लकीरें साफ दिखती हैं। भारत में गिग वर्क पूरी तरह ऐप आधारित है। एक क्लिक पर काम मिलता है और एक क्लिक पर छिन भी सकता है। कैब और बाइक टैक्सी, फूड-ग्रोसरी डिलीवरी, लॉजिस्टिक और वेयरहाउस की शिफ्टें, कंटेंट राइटिंग, डिजाइनिंग, कोडिंग या घरेलू सेवाएं इन सभी कामों की एक ही सच्चाई है, आज ऑर्डर है तो कमाई है, कल नहीं तो जेब खाली। इस मॉडल में न कोई स्थायी ड्यूटी है, न तय भविष्य। मांग बढ़ी तो काम, मांग घटी तो बेरोज़गारी।
12 घंटे की मेहनत, फिर भी अनिश्चित कमाई
गिग वर्कर्स की औसत कमाई भले ही ₹10,000 से ₹25,000 के बीच बताई जाती हो, लेकिन हकीकत इससे कहीं ज़्यादा कठोर है। इंसेंटिव मिल रहे हों तो जेब में कुछ पैसे आते हैं, लेकिन जैसे ही कंपनी पॉलिसी बदलती है, कमाई आधी रह जाती है। पेट्रोल, मोबाइल, इंटरनेट, वाहन की मरम्मत हर खर्च वर्कर के सिर। बीमार पड़ गए तो न पैसा, न छुट्टी। कई गिग वर्कर्स रोज़ 10 से 12 घंटे सड़क पर रहते हैं, फिर भी महीने के आखिर में न्यूनतम मजदूरी तक नहीं जुटा पाते।
सुरक्षा नहीं, सिर्फ जोखिम
गिग वर्कर्स की ज़िंदगी जोखिमों से भरी है। सड़क दुर्घटनाएं, बारिश-धूप में काम, देर रात डिलीवरी, ग्राहकों से बदसलूकी ये सब उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। इसके बावजूद उन्हें न हेल्थ इंश्योरेंस मिलता है, न पेंशन, न पीएफ। कानूनी तौर पर वे “कर्मचारी” नहीं, बल्कि “स्वतंत्र ठेकेदार” हैं, यानी श्रम कानूनों से बाहर। रेटिंग गिरते ही काम बंद हो सकता है। अकाउंट सस्पेंड हुआ तो रोज़गार खत्म बिना किसी सुनवाई के।
महिलाओं के लिए चुनौती दोगुनी
महिला गिग वर्कर्स के लिए यह सफर और कठिन है। देर रात की शिफ्ट, सुरक्षा का डर और सामाजिक दबाव उनके कदम रोकता है। बावजूद इसके, कई महिलाएं मजबूरी में इस सिस्टम का हिस्सा बनी हुई हैं। अमेरिका और यूरोप के कई देशों में गिग वर्कर्स के लिए न्यूनतम प्रति घंटे मजदूरी, दुर्घटना बीमा और हेल्थ कवर अनिवार्य है। ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों में उन्हें आंशिक कर्मचारी का दर्जा दिया गया है। वहां प्लेटफॉर्म कंपनियां जवाबदेह हैं। भारत में स्थिति उलट है न न्यूनतम वेतन, न मजबूत शिकायत व्यवस्था, न प्लेटफॉर्म की जवाबदेही।