बनारस में ही क्यों मनाई जाती है आज सच्ची दीपावली? जानें घाटों पर दिव्यता का इतिहास, परंपरा, प्रकृति और भक्ति का मेल

KNEWS DESK- कार्तिक मास की पूर्णिमा—जब गंगा का जल स्फटिक समान निर्मल होता है, आकाश नीला और हवा में सप्तपर्णी की सुगंध तैरती है—उसी दिन काशी में उतरती है देव दीपावली, देवताओं के पृथ्वी पर आगमन का पावन क्षण। कहा जाता है, यही वह दिन है जब देवता स्वयं गंगा के तट पर दीपों के महासागर में उतर आते हैं। इस दिन काशी के घाटों पर लाखों दीयों की ज्योति न केवल अंधकार मिटाती है, बल्कि मानव श्रम, मिट्टी की गंध और भक्ति का सौंदर्य भी जगमगाती है।

काशी की सच्ची दीपावली

वाराणसी में असली दीपावली इस दिन होती है। गंगा तट के हर घाट पर मिट्टी के दीयों की कतारें जलती हैं। यह सिर्फ प्रकाश का नहीं, आस्था और सृजन का उत्सव है। हर दीये में कुम्हार के चाक की मेहनत है, सरसों के तेल की बासंती आभा है, कपास की कोमल हंसी और मिट्टी की मोहक सुगंध है। इन दीयों में प्रकृति का पंचतत्व समाया है पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इसलिए यह दीप देवत्व का प्रतीक बन जाता है। घाटों पर जब बांस पर टंगे आकाशदीप झिलमिलाते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे गंगा के ऊपर सितारे उतर आए हों। यही दीया सूर्य भी है, चंद्र भी, अग्नि भी और जब यह अखंड जलता है, तो ब्रह्म का प्रतीक बन जाता है।

परंपरा, प्रकृति और भक्ति का मेल

धर्मशास्त्रों में कार्तिक, माघ और वैशाख को स्नान, जप और अनुष्ठान के लिए श्रेष्ठ महीना बताया गया है। इस पूरे महीने तुलसी के पौधे के पास दीपक जलाने की परंपरा है। जो घर में सुख, शांति और विष्णु कृपा का संकेत माना जाता है। कार्तिक शरद ऋतु का उत्तरपक्ष है। खेतों में नई फसल की गंध है, किसान के आंगन में धान कूटने की आवाज है, और प्रकृति अपने सबसे सुंदर रूप में होती है।

गुरु नानक देव जी का जन्मोत्सव, देवोत्थान एकादशी, तुलसी विवाह ये सभी पर्व इसी महीने में आते हैं। भगवान विष्णु इस काल में चतुर्मास की निद्रा से जागते हैं और जगत को नई ऊर्जा मिलती है। इसी माह में भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध कर “त्रिपुरारी” नाम पाया, और गंगा स्नान का पुण्य वर्ष भर के स्नान के बराबर बताया गया।

घाटों पर दिव्यता का इतिहास

काशी का पंचगंगा घाट देव दीपावली का जीवित इतिहास है। कहा जाता है कि यहां गंगा के साथ यमुना, सरस्वती, धूतपापा और किरणा नदियां मिलती हैं। यही वह स्थान है जहां संत रामानंद रहते थे और कबीर ने उन्हीं से “राम-राम” का गुरुमंत्र पाया था।
बचपन के बनारस में यह उत्सव किसी आयोजन समिति का नहीं, बल्कि जन-जन की सहज आस्था का उत्सव था। जहां हर घर, हर घाट, हर व्यक्ति अपनी भक्ति का दीप स्वयं जलाता था।

देव दीपावली: एक जीवित स्मृति

कभी बनारस की देव दीपावली गंगा के शीतल जल में डुबकी, मित्र मिलन, नौकाविहार और दान का त्योहार हुआ करती थी। अब भले ही इसे सरकारी आयोजन और पर्यटन के उत्सव में बदल दिया गया हो, किंतु इसके भीतर की आत्मा अब भी जीवित है। वह आत्मा जो हर वर्ष गंगा के प्रवाह में, दीपों की लौ में, और भक्ति के स्वर में पुनः जन्म लेती है।

काशी के घाटों पर हर वर्ष जब लाखों दीये जलते हैं, तो लगता है जैसे देवता स्वयं उतर आए हों और गंगा की शीतलता में उनके आशीर्वाद का अमृत घुल गया हो। देव दीपावली केवल एक पर्व नहीं, बल्कि यह हमारे भीतर के प्रकाश, हमारी मिट्टी, हमारी स्मृति और हमारी श्रद्धा का उत्सव है। हर बार जब काशी के घाट दीयों से जगमगाते हैं। यह हमें याद दिलाते हैं कि प्रकाश हमेशा अंधकार पर विजय पाता है, और आस्था कभी नहीं मरती।