तालिबान: आतंक का आका

तालिबान सालों पहले से आतंक का आका रहा है अपने क्रूर मंसूबों के चलते तालिबान ने दुनियाभर का ध्यान अपनी ओर खींच रखा है। 20 साल तक अमेरिकी सैनिकों के दबाव के बाद अप उनकी वापसी पर तालिबान का असली चेहरा एक बार फिर सामने आया है। अफगानिस्तान में चारों ओर कत्ले आम हो रहे हैं तो वहीं महिलाओं को तालिबानी फरमान सुनाकर उनकी अस्मत से खेला जा रहा है। आज बात करते हैं उसी तालिबान की जिसपर अमेरिकी हमले के बाद अमेरिका ने लगाम लगाई थी।

9/11 अमेरिका पर हमला

अमेरिका में 11 सिंतबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ, जिसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का ऐलान किया. हमले में अलकायदा का नाम आया था, जिसके ज्यादातर आतंकी उस वक्त अफगानिस्तान में थे जहां तालिबान का कब्जा था। अमेरिका ने लादेन समेत अलकायदा के आतंकियों को सौंपने की मांग की, जिसे तालिबान ने ठुकरा दिया, नतीजन अमेरिका की अगुवाई वाली नाटो गठबंधन सेनाओं ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया और मई 2003 तक चले संघर्ष के बाद अमेरिका ने मिलिट्री ऑपरेशन के खत्म होने और तालिबान के खात्मे का ऐलान किया। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि 20 साल बाद आखिर क्यों वापस लौट रही है अमेरिकी सेना?

काम नहीं आया दोहा समझौता

हालांकि 2003 के बाद भी अमेरिकी सेनाएं अफगानिस्तान में ही डटी रहीं और तालिबान भी छोटी-मोटी वारदातों को अंजाम देता रहा, लेकिन अब 20 साल बाद अमेरिका की सेनाएं वापस लौट रही हैं। इस दौरान अमेरिका में सैनिकों की वापसी की मांग लगातार होती रही और इसके लिए सरकारें भी वादा करती रहीं। आखिरकार फरवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा समझौता हुआ, जिसके मुताबिक तालिबान हिंसा को बढ़ावा नहीं देने के साथ ही अफगान सरकार से शांति वार्ता को आगे बढ़ाएगा। समझौते में यह भी कहा गया था कि अलकायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों को अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाएगा। हालांकि इस समझौते में अफगान सरकार को शामिल नहीं किया गया था। अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ जंग में अमेरिका और अन्य देशों ने पूरी ताकत तो झोंकी, लेकिन इसमें उसको बहुत नुकसान भी उठाना पड़ा. सबसे बड़ा नुकसान अमेरिका ने उठाया, जिसने इस जंग की अगुवाई की। आंकड़े बताते हैं कि इस युद्ध में कुल 2.41 लाख लोगों की मौत हुई, जिसमें 6384 अमेरिकी सैनिक, 1144 अन्य देशों के सैनिक और 78314 अफगानी सैनिक शहीद हुए। यही नहीं इस युद्ध मे करीब 10 लाख अमेरिकी सैनिक दिव्यांग भी हो गए। तालिबान के खिलाफ युद्ध में 71344 आम नागरिकों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी, जिसमें 8 हजार से अधिक बच्चे और करीब साढ़े 3 हजार महिलाएं शामिल हैं।

अमेरिकी सैनिकों की वापसी, तालिबान बेखौफ

इतिहास शायद ही किसी मुल्क की किस्मत में इतने अजीबो-गरीब तरीके से वक्त के पन्ने पलटता हो, जितना अफगानिस्तान की पहाड़ी-पथरीली जमीन ने देखी है। कभी रूस के समर्थन से चल रहे जहीर शाह के शासन में आधुनिकता की ओर बढ़ रहा अफगानिस्तान 1990 के दशक में तालिबान के मध्ययुगीन शासन को भी देख चुका है। इसके बाद 9/11 के हमले के बाद अमेरिकी और नाटो देशों की सेनाओं ने तालिबान के शासन से मुक्ति दिलाई तो बीस साल में अपने पैरों पर खड़ा होना मुल्क सीख ही रहा था कि तालिबान ने फिर सिर उठा लिया। अप्रैल 2021 में अमेरिका ने ऐलान किया कि सितंबर तक उसके सैनिक लौट जाएंगे, इसके बाद तालिबान ने हमला तेज किया और आज नतीजा सबके सामने। जहां-जहां तालिबान का कब्जा होता गया वहां फिर वही शरिया कानून, कोड़े मारने की सजा, सड़कों पर कत्लेआम और दाढ़ी बढ़ाने, संगीत सुनने, महिलाओं पर पाबंदियों जैसे मध्ययुगीन फरमानों का दौर लौटता गया। पूरे देश पर अब फिर तालिबान का कब्जा है और लोग खौफ से फिर घर-बार छोड़कर पड़ोसी मुल्कों में भागने को मजबूर हैं। अफगानिस्तान से रूसी सैनिकों की वापसी के बाद 1990 के दशक की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान का उभार हुआ था। पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता है छात्र, खासकर ऐसे छात्र जो कट्टर इस्लामी धार्मिक शिक्षा से प्रेरित हों। कहा जाता है कि कट्टर सुन्नी इस्लामी विद्वानों ने धार्मिक संस्थाओं के सहयोग से पाकिस्तान में इनकी बुनियाद खड़ी की थी।

अमेरिका को हुआ आर्थिक नुकसान

अमेरिका ने 20 सालों में पूरी आर्थिक ताकत अफगानिस्तान में झोंकी है। तालिबान के खिलाफ जंग में अमेरिका ने 167 लाख करोड़ रुपये खर्च किए। इस खर्चे को आप इस तरह से भी समझ सकते हैं कि भारत के रक्षा बजट से 40 गुना अधिक अमेरिका ने आतंक के खिलाफ जंग में खर्च कर दिए। अपने सैनिकों की वापसी के साथ ही अमेरिका में लोग खुश हैं। ये अमेरिकियों की बहुत पुरानी मांग थी जो अब पूरी हो रही है, लेकिन अफसोस कि अफगानिस्तान के लोग अब एक बार फिर से वही जीवन जीने को मजबूर होंगे।

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