Knews Desk, कहा जाता है कि भारत में हर 10 किलोमीटर पर पानी का स्वाद और भाषा बदल जाती है, जो देश की अत्यधिक विविधता को प्रदर्शित करती है। भारत की धरोहर और संस्कृति भाषा, खानपान, परंपरा और शिल्प जैसे विभिन्न पहलुओं से संपन्न है । इसी तरह, भारत में मिट्टी से बने मिट्टी से जुड़ी परंपराएँ भी विविध हैं, जो स्थानीय रूप से उपलब्ध मिट्टी के कारण विशेष गुणों से युक्त होती है।
उत्तर प्रदेश का आजमगढ़ जिला चमकदार काले मिट्टी से बने बर्तनों के लिए प्रसिद्ध है। इस कला को 2015 में भौगोलिक सूचकांक (जीआई) टैग प्रदान किया गया था। साथ ही यह यूपी सरकार की एक जिला, एक उत्पाद (ओडीओपी) पहल के अंतर्गत भी आता है।
क्षेत्र के कुम्हार विभिन्न उत्पादों जैसे प्लेट, गिलास, चाय का कप, फूलदान और अन्य बर्तन इस मिट्टी से बनाते हैं । वर्तमान में, लगभग 240 कलाकार इस तरह के उत्पादों को बनाते हैं। कुम्हार मिट्टी को गर्मियों के महीनों में एकत्रित करते हैं और वर्षभर इस्तेमाल के लिए अपने घरों में संग्रहित करते हैं। यह उत्पाद कई बार कई नियमित प्रक्रियाओं से गुजरता है ताकि इसका काला स्वरूप निखर के सामने आ सके।
इन बर्तनों को इनका स्वरूप देने के बाद इन्हें पहिए से हटाया जाता है, फिर इसे कई दिनों तक धूप में सुखाया जाता है, और फिर इसे मजबूत करने और चमक बढ़ाने के लिए सरसों का तेल लगाया जाता है। उत्पाद में किसी भी प्रकार की खामी या विकृति न रह जाए, इसे सुनिश्चित करने के लिए कुम्हार इन्हें एक और बार पहिए पर ले जाते हैं। परिवार की महिलाएं और बच्चे मिट्टी पर नक्काशी करने का कार्य करते हैं, जिसे फिर से सरसों के तेल में लपेटा जाता है, और फिर इन्हें भट्ठे में डाल दिया जाता है ताकि फिर से जलाया जा सके।भट्ठे में ऑक्सीजन न होने की वजह से इन बर्तनों का रंग काला होता है।
2-3 दिनों तक भट्टी में पकाए जाने के बाद, इसे निकाल कर कुछ घंटों के लिए छोड़ दिया जाता है। अंततः, किसी भी प्रकार की गड़बड़ियों को भरने के लिए पीटित सीसा, जिंक और पारा से बना चांदी का पेंट उपयोग करके इसे एक नया रुप दिया जाता है।
राजकुमार प्रजापति, काले मिट्टी के एक प्रशिक्षित कलाकार, ने कहा, “कुम्हार समुदाय को इस प्राचीन कला को उन्नत करने के लिए राज्य सरकार से कुछ खास सहयोग नहीं प्राप्त होता है। बड़े बाजारों तक पहुंच ना हो पाने के कारण, अधिकांश व्यक्तिगत कलाकार अपने उत्पादों को अपने क्षेत्र में स्थानीय व्यापारियों को कम दामों पर बेचते हैं। “ इन उत्पादों की नाज़ुकता के कारण, कलाकारों को संग्रहण के दौरान हानि होती है। स्थानीय लोग सजावट और दैनिक उपयोग के लिए काली मिट्टी के उत्पादों का प्रयोग करते हैं। ये पात्र केवल कुछ गाँवों में ही बेचे जाते हैं और कमाई भी उतनी अधिक नहीं होती है।
“मिट्टी से बने बर्तन बनाने की प्रक्रिया पूरी करने में 5-7 दिन लगते हैं, प्रक्रिया के दौरान मुख्य कठिनाई बेमौसम बारिश होती है, जो कभी-कभी पूरे महीने के उत्पाद को एक बार में ही नष्ट कर देती है”- आजमगढ़ ब्लैक पॉटरी बोर्ड के अध्यक्ष शंकर प्रजापति।
बर्तनों के उत्पादन में आपर्याप्त बिजली और संसाधनों की कमी भी बड़ी बाधा बनती है। मशीनीकरण के इस युग में इस प्राचीन परंपरा को जीवित रखने के लिए आज इन कलाकारों के रास्ते में बड़ी मुश्किल खड़ी है। हालांकि मशीनी कार्य कभी भी मानव द्वारा किए गए सूक्ष्म विवरण की उत्कृष्टता से मेल नहीं खा सकते ।