भगवान को भोग क्यों लगाया जाता है? जानिए शास्त्रों के अनुसार इसका गूढ़ अर्थ और आध्यात्मिक संदेश

KNEWS DESK- हिंदू धर्म में पूजा-पाठ के दौरान देवी-देवताओं को भोग अर्पित करने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। अक्सर लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि जब भगवान स्वयं आकर भोजन नहीं करते, तो फिर भोग लगाने का क्या महत्व है? क्या यह केवल एक धार्मिक रस्म है या इसके पीछे कोई गहरा आध्यात्मिक रहस्य छिपा है? शास्त्रों और परंपराओं में भोग को लेकर कई महत्वपूर्ण कारण बताए गए हैं।

शास्त्रों में भोग का महत्व

शास्त्रों के अनुसार, भगवान को भोग अर्पित करना केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि अन्न शुद्धि और कर्म शुद्धि की प्रक्रिया है। मान्यता है कि बिना भोग लगाए भोजन करने से अन्न दोष उत्पन्न हो सकता है। जब भोजन ईश्वर को अर्पित किया जाता है, तो वही भोजन प्रसाद बन जाता है, जो शरीर के साथ-साथ मन और आत्मा को भी शुद्ध करता है।

अन्न दोष क्या है और भोग से कैसे दूर होता है?

धार्मिक दृष्टि से अन्न केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि ऊर्जा और संस्कारों का वाहक है। भोजन बनाते और ग्रहण करते समय मन की स्थिति, विचार और भावनाएं उसमें समाहित हो जाती हैं। जब भोजन भगवान को भोग के रूप में अर्पित किया जाता है, तो उसमें मौजूद नकारात्मकता समाप्त हो जाती है। शास्त्रों के अनुसार, भोग लगाने से अन्न दोष दूर होता है और जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का वास होता है।

भोग और त्याग की भावना का गहरा संबंध

भगवान के लिए भोग बनाना व्यक्ति के भीतर त्याग, दान और समर्पण की भावना को विकसित करता है। जब हम अपने लिए भोजन या मिठाई बनाते हैं, तो उसे अपने परिवार तक सीमित रखते हैं। लेकिन वही भोजन जब भगवान को अर्पित किया जाता है, तो उसे प्रसाद के रूप में अधिक से अधिक लोगों में बांटा जाता है। यही प्रक्रिया व्यक्ति को स्वार्थ से ऊपर उठकर सेवा और समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव सिखाती है।

भोग से अहंकार का होता है नाश

भोग अर्पण का एक गहरा आध्यात्मिक अर्थ यह भी है कि इससे ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना कम होती है। व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि जो कुछ भी उसके पास है, वह ईश्वर की कृपा से है। इस तरह भोग लगाने की परंपरा अहंकार को समाप्त कर विनम्रता और कृतज्ञता का भाव पैदा करती है।

क्यों कहा जाता है भोग के बाद ही भोजन करें?

शास्त्रों में कहा गया है कि देवताओं को अर्पित किया गया भोजन ही मनुष्य के लिए ग्रहण करने योग्य होता है। भोग के बाद भोजन प्रसाद बन जाता है, जिसमें सात्विक गुणों की वृद्धि होती है। ऐसा भोजन न केवल स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना गया है, बल्कि मानसिक शांति, सकारात्मक सोच और आत्मिक संतुलन भी प्रदान करता है।

भोग की परंपरा का सामाजिक और आध्यात्मिक संदेश

भोग की परंपरा व्यक्ति को केवल स्वयं तक सीमित नहीं रहने देती, बल्कि साझा करने और सेवा करने की प्रेरणा देती है। यही कारण है कि मंदिरों में भंडारे और प्रसाद वितरण की परंपरा आज भी जीवंत है। यह सिखाती है कि जीवन में जो कुछ भी प्राप्त हो, उसे दूसरों के साथ बांटना ही सच्ची भक्ति और मानवता का मार्ग है।

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