‘हिंद की चादर’ गुरु तेग बहादुर: जिनकी शहादत ने भारत को धार्मिक स्वतंत्रता का सबसे बड़ा संदेश दिया

शिव शंकर सविता- सिख धर्म के नौवें गुरु गुरु तेग बहादुर की शहादत केवल सिखों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए गौरव और बलिदान का प्रतीक है। 24 नवंबर 1675 को दिल्ली की धरती पर हुआ यह बलिदान इस बात का प्रमाण है कि जब धर्म और मानवीय मूल्यों को खतरा होता है, तब एक संत, एक योद्धा और एक गुरु अपनी जान तक न्योछावर कर देता है।गुरु तेग बहादुर का जन्म 1621 में अमृतसर में हुआ था। वे गुरु हरगोबिंद के सबसे छोटे पुत्र थे। बचपन में उनका स्वभाव अत्यंत संयमी और त्यागी था, इसलिए उन्हें ‘त्याग मल’ कहा जाता था। जैसे-जैसे वे बड़े हुए, उनके अंदर आध्यात्मिक अध्ययन और तलवारबाज़ी दोनों की अद्भुत क्षमता विकसित हुई। अपने पिता के शहर कीरतपुर से मात्र पांच किलोमीटर दूर गुरु तेग बहादुर ने एक नया नगर बसाया — आनंदपुर। यह नगर आगे चलकर सिखों का आध्यात्मिक और राजनीतिक केंद्र बना। उनके समय में गुरु ग्रंथ साहिब में 700 से अधिक भजनों का योगदान हुआ, जो आज भी दुनिया भर के गुरुद्वारों में गूंजते हैं।

औरंगजेब के दौर में बढ़ते अत्याचार

1660 के दशक में मुगल शासन में धार्मिक स्वतंत्रता खत्म हो रही थी। विशेषकर औरंगजेब के शासनकाल में हिंदुओं, सिखों और अन्य समुदायों पर दबाव बढ़ा। जबरन धर्म-परिवर्तन सामान्य बात बन चुकी थी। कश्मीर में तो हालात ऐसे हो गए कि कई हिंदू पंडितों को इस्लाम स्वीकार करने की धमकी दी जाने लगी। उसी समय एक जत्था आनंदपुर पहुंचा और गुरु तेग बहादुर से विनती की कि वे उनकी रक्षा करें। गुरु ने कहा — “यदि एक महापुरुष अपना बलिदान दे, तो लाखों की रक्षा हो सकती है।” इसी निर्णय ने भारत के इतिहास की दिशा बदल दी।

गिरफ्तारी और यातना : फिर भी अडिग रहे गुरु

औरंगजेब को गुरु तेग बहादुर का बढ़ता प्रभाव खलने लगा। उसने गुरु को दिल्ली तलब किया और धर्म परिवर्तन न करने पर मौत की धमकी दी। गुरु ने साफ कहा “धर्म मन की स्वतंत्रता है, इसे तलवार से नहीं छीना जा सकता।” गुरु को गिरफ्तार कर चांदनी चौक में कैद रखा गया। उन्हें कई तरह की यातनाएं दी गईं, ताकि वे अपने सिद्धांतों से पीछे हट जाएं। लेकिन गुरु अचल रहे। उनके तीन साथियों पर जो अत्याचार हुआ, वह मानवता को हिला देने वाला था। सतीदास को रुई में लपेटकर जला दिया गया, दयाला को खौलते तेल में फेंक दिया गया और भाई मतीदास को आरे से चीर दिया गया। यह सब गुरु के सामने हुआ, ताकि वे डर जाएं। लेकिन गुरु अडिग रहे।

24 नवंबर 1675 : बलिदान जिसने इतिहास बदल दिया

आखिरकार औरंगजेब ने फतवा सुनाया या इस्लाम कबूल करो या मौत स्वीकार करो। गुरु तेग बहादुर ने मृत्यु को चुना, लेकिन अपनी आस्था को नहीं छोड़ा। चांदनी चौक में जहां आज सीसगंज गुरुद्वारा है, वहीं पर गुरु का सिर धड़ से अलग किया गया। उनकी शहादत के बाद कश्मीरी पंडितों समेत अनेक लोगों ने स्वयं को सुरक्षित महसूस किया और कई लोग सिख धर्म से जुड़े। गुरु तेग बहादुर को इसलिए “हिंद की चादर” कहा गया, क्योंकि उन्होंने पूरे भारत की रक्षा के लिए अपने प्राण त्यागे। उन्होंने यह सिद्ध किया कि धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता है जिसे भय, बल और अत्याचार से छीन नहीं जा सकता।

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