मानव वन्यजीव-संघर्ष को कागजों में नहीं, धरातल पर उतारे सरकार : हाइकोर्ट

उत्तराखंड : उत्तराखण्ड पहाड़ी प्रदेश होने के साथ ही वन संपदा से भी भरपूर प्रदेश है। वन संपदा राज्य की आय का भी एक स्रोत है। राज्य के अधिकांश जिले भी पहाड़ी में हैं। ऐसे में पहाड़ो की आबादी भी वनों के नजदीक बसी है। साथ ही ये आबादी अपने पशुओं के चारे की व्यवस्था के लिए वनों पर ही निर्भर रहती है। ऐसे में वनों में रहने वाले वन्यजीवों से अक्सर इनका सामना हो जाता है, और अक्सर ये मानव और वन्यजीव संघर्ष के तौर पर देखा जाता है। इससे जहां एक ओर मानव आबादी को भी खतरा बना रहता है वहीं दूसरी ओर वन्यजीवों के संरक्षण भी ठीक प्रकार से नहीं हो पाता है। इसी को लेकर एक याचिका में सुनवाई करते हुए नैनिताल हाइकोर्ट ने बीते दिन कहा कि राज्य सरकार मानव-वन्यजीव संघर्ष को रोकने को लेकर गंभीर नहीं है। साथ ही इसपर सरकार से जवाब भी मांगा है। सरकार ने अपना जवाब दाखिल करने को लेकर कोर्ट से कुछ समय मांगा है। कोर्ट ने भी सरकार को इसके लिए दो सप्ताह का समय दिया है।

 

 

जनहित याचिका पर करी सुनवाई

हाइकोर्ट में दाखिल दून निवासी अनु पंत की एक जनहित याचिका पर मुख्य न्यायाधीश विपिन सांधी व राकेश थपलियाल की खंडपीठ ने मानव-वन्यजीव संघर्ष पर कहा, कि इसकी रोकथाम को लेकर कोर्ट ने जो पूर्व में निर्देश दिये। सरकार ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने कहा कि बीते वर्ष नवम्बर को सुनवाई के दौरान प्रमुख सचिव वन को निर्देश देते हुए कहा था कि मानव-वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए, जानकार विशेषग्यो की कमेटी बनाई जाए। आगे कहा कि प्रमुख वन संरक्षक विनोद सिंघल द्वारा दाखिल शपतपत्र केवल कागजी था। धरातल पर इसकी योजना दिखती नजर नहीं आयी ।

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