जातीय जनगणना को लेकर जहां यूपी में राजनैतिक सरगर्मियां बढ़ी हुई हैं तो वहीं बिहार के मुख्यमन्त्री बगैर पीएम की खिलाफत के बीजेपी से इतर जाते दिखाई दे रहे हैं। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि बीते सोमवार को नीतीश ने अपने बयान के बाद आलोचकों की प्रतिक्रिया पर कहा था कि कुछ लोग इसे समाज बांटने वाला क़दम बता रहे है, जबकि ये समाज की एकजुटता बढ़ाएगा। ये पहला मौका नहीं है जब नीतीश कुमार ने खुलकर एक ऐसे मुद्दे पर बयान दिया है जिस पर बीजेपी विपक्ष की ओर से दबाव झेल रही है। जातीय जनगणना को लेकर यूपी में निषाद पर्टी से लेकर अतिपिछड़ों की वकालत करने वालों के सुर तेज हो चुके हैं और बीजेपी पर लगातार हमला किया जा रहा है अब ऐसे में बीजेपी किसी निर्णय की स्थिति में नजर नहीं आ रही है कि आखिर इस कांटे को दूर करने के लिए किस कांटे का इस्तेमाल किया जाए।
नीतीश क्यों चल रहे हैं चाल, क्या है मंशा ?
पिछले कुछ समय से नीतीश कुमार लगातार जातिगत जनगणना समेत कई मुद्दों पर केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। एनडीए घटक दल के नेता और बीजेपी के समर्थन से बिहार सीएम बनने के बावजूद नीतीश कुमार जातिगत जनगणना के मुद्दे पर बार-बार बीजेपी पर दबाव बना रहे हैं। इससे एक सवाल पैदा होता है कि आख़िर नीतीश कुमार ऐसा क्यों कर रहे हैं। इस राजनीतिक चाल के पीछे उनकी क्या मंशा है और इससे बिहार और देश की राजनीति में वह कौन सा नया दांव खेलना चाहते हैं या फिर क्या संदेश देना चाह रहे हैं। शायद वह यह नहीं चाहते कि इस मुद्दे पर सारा राजनीतिक लाभ तेजस्वी उठा लें या वह इसके ज़रिए बीजेपी पर दबाव बनाना चाहते हैं ये भी अपने आप में एक सवाल है।
एक तीर से कई निशाने साधने का प्रयास !
शायद नीतीश कुमार इस समय एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश कर रहे हैं। नीतीश कुमार अपने और अपनी पार्टी के भविष्य के लिए एक नए राजनीतिक आधार की रचना करने में जुटे हैं क्योंकि अब वो समय नहीं है जब नीतीश कुमार की मर्ज़ी के बिना जदयू में पत्ता भी नहीं हिलता था। उन्हें अपने तमाम सहयोगियों की ओर से चुनौतियां मिल रही हैं। ऐसे में वे अपने पुराने सहयोगियों की ओर लौटते दिख रहे हैं, जिनमें उपेंद्र कुशवाहा और लालू यादव शामिल हैं और इन पुराने साथियों की बदौलत वह कोइरी, यादव और कुर्मी जातियों को एक साथ लाकर एक नया राजनीतिक आधार बनाना चाहते हैं। नीतीश कुमार की इस मुखरता में ये संकेत मिल रहे हैं कि उनकी नज़र साल 2024 में होने वाले आम चुनावों पर है।
विपक्ष के लिए सन्देश तो नहीं
नीतीश ने पिछले कुछ समय में जिस प्रकार से पेगासस से लेकर एनआरसी के मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश की है उससे ऐसा लगता है कि वह विपक्ष को बताना चाहते हैं कि साल 2024 के चुनाव में मोदी का सामना करने के लिए वह उपलब्ध हैं। वह ये बताना चाहते हैं कि उनके रूप में विपक्ष के पास एक विकल्प मौजूद है। दूसरी वजह ये है कि शायद वह बीजेपी को भी ये संदेश देना चाहते हैं कि बिहार में मोदी उनके बॉस नहीं हैं। बिहार में मोदी जो चाहेंगे वह नहीं होगा, बल्कि वह जो चाहेंगे वो होगा। इस तरह वह बीजेपी पर भी दबाव बनाए रखना चाहते हैं।
केन्द्र की न के बाद भी क्यों जारी है कदमताल
एक सवाल यह भी उठता है कि जब केन्द्रीय मंत्री तक ये स्पष्ट कर चुके हैं कि केंद्र सरकार इस दिशा में क़दम नहीं बढ़ा रही है तब भी नीतीश कुमार बार-बार राजद नेता तेजस्वी यादव के साथ क़दमताल मिलाते हुए इस मुद्दे पर बयान क्यों दे रहे हैं। बीबीसी ने भी इसी सवाल का जवाब तलाशने के लिए बिहार की राजनीति को समझऩे वाले तीन वरिष्ठ पत्रकारों सुरूर अहमद, लव कुमार मिश्र और अमरनाथ तिवारी से बात की थी, और असलियत जानने की कोशिश की थी। वहीं कई जानकारों का मानना है कि “ये सही है कि नीतीश कुमार ने इस बार बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को अपने जाल में फंसा लिया है। अमित शाह ने एनआरसी के मुद्दे पर क्रोनोलॉजी वाला बयान दिया था। लेकिन इस मामले में न अमित शाह बोल पा रहे हैं और न ही बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा कुछ कह पा रहे हैं। जिससे लग रहा है कि अब बीजेपी को इस असहज स्थिति से निकलने के लिए नीतीश कुमार के लेवल पर जाकर ही डील करनी पड़ेगी।
नया राजनैतिक आधार तलाशने की कोशिश ?
संभव है कि नीतीश कुमार कुर्मी, कोइरी और यादव के गठजोड़ से एक नया राजनीतिक आधार तलाशने की कोशिश कर रहे हों और अपनी सोशल इंजीनियरिंग की स्किल से एक नई शुरुआत कर सकते हैं। इसके साथ ही इनका कुछ और भी मक़सद हो सकता है। दक्षिण भारत में पेरियार जाति एक राजनीतिक मुद्दा रही है और ऐसे में नीतीश कुमार डीएमके जैसी दक्षिण भारतीय पार्टियों का समर्थन ले सकते हैं और ओबीसी-ईबीसी के नेतृत्व के लिए राम विलास पासवान के जाने से जो जगह खाली हुई है, वो जगह ले सकते हैं। एक चीज़ और ध्यान देने वाली है कि नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री पद की ओर अपने क़दम बढ़ा दिए हैं। उनकी पार्टी में जो प्रस्ताव पारित हुआ, उसे बेहद सफ़ाई और चतुराई के साथ लिखा गया था। उसमें ये बताया गया कि नीतीश कुमार योग्य तो हैं, लेकिन इच्छुक नहीं हैं और नीतीश कुमार के पुराने बयानों को देखें तो पता चलता है कि नीतीश कुमार वही काम करते हैं जिसकी वह इच्छा नहीं जताते हैं। एक बात और कि नीतीश इस समय ओबीसी राजनीति को नज़रअंदाज नहीं कर सकते क्योंकि इस वक़्त यह अपने उभार पर हैं। बीजेपी भी इस बात को समझती है। बिहार में जो दो उप-मुख्यमंत्री बने हैं, वे भी ओबीसी हैं। ऐसे में सभी राजनेताओं के सामने एक लाचारी की स्थिति है। ये एक राजनीतिक मजबूरी है जिससे नीतीश क्या बिहार का कोई भी नेता छुटकारा नहीं पा सकता है।