उत्तराखंड डेस्क रिपोर्ट। मोदी सरकार की कैबिनेट द्वारा हाल ही में जाति आधारित जनगणना के फैसले पर मुहर लगा दी गई है. इसका मतलब ये है कि इस बार होने वाली गणना में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को भी शामिल किया जाएगा. बता दें कि हमारे संविधान में अभी तक केवल एससी और एसटी की गणना करने का ही प्रावधान है, मगर इस बार ओबीसी को भी इसमें शामिल किया जाएगा. जातिगत जनगणना से उत्तराखंड में कई सामाजिक समीकरणों में बदलाव आने की संभावना है. उत्तराखंड की कुल जनसंख्या सवा करोड़ के करीब है. अनुमानित आंकड़ों की मानें तो उत्तरकाशी जिले में सबसे ज्यादा जनसंख्या ओबीसी की है, तो वहीं हरिद्वार लगभग 56 प्रतिशत, उधम सिंह नगर में 45 प्रतिशत तक इस वर्ग की हिस्सेदारी मानी जाती है. उत्तराखंड में मूल रूप से पाई जाने वाली प्रमुख जनजातियों में थारू, जौनसारी, बुक्सा, भोटिया, आदि हैं, इनकी जनसंख्या कुल आबादी का 2.89 प्रतिशत है. इन्हें मूल जनजातियों को ज्यादातर समय पर प्रदेश में अनदेखा किया गया है और इन्हें अपने मूलभूत अधिकारों के लिए भी आवाज उठानी पड़ी है. जातिगत जनगणना होने से इनकी पहचान हो सकेगी और इनके मुद्दों पर भी बात की जा सकेगी. उत्तराखंड की प्रमुख समस्याओं में से एक पहाड़ों से होने वाला पलायन भी है हर साल बड़ी संख्या में नौजवान लोग रोजगार की तलाश में अपने गांवों को छोड़कर शहरों की तरफ चले जाते हैं. इससे जहां एक तरफ जनसंख्या असंतुलन हो रही है तो वहीं सुविधाओं पर दबाव भी पड़ रहा है. जातिगत जनगणना करने से इसे रोकने और युवाओं के लिए नई रोजगार संबंधी नीतियां बनाने में भी मदद मिल सकती हैं. नई जनगणना के बाद जनसंख्या की स्थिति साफ हो सकेगी। वही मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का कहना है की यह मांग कांग्रेस द्वारा ही बहुत पहले से की जा रही थी।
आपको बता दे केंद्र सरकार द्वारा अगली जनगणना के साथ ही जातीय जनगणना कराने के निर्णय को सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। प्रदेश में अभी तक विधानसभा चुनाव में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं हैं। ओबीसी आरक्षण पंचायत चुनाव के लिए भी लागू होगा। इस बीच जातीय जनगणना कराने के केंद्रीय कैबिनेट के निर्णय से आने वाले समय में चुनाव के साथ ही राजनीतिक दलों के भीतर भी ओबीसी की हैसियत मजबूत होना तय है। ओबीसी जनसंख्या का सर्वाधिक प्रभाव हरिद्वार, उधमसिंह नगर और देहरादून जिलों में देखने को मिलेगा। उत्तराखंड में जातीय समीकरणों की बात करें तो वोटरों के लिहाज से सीएसडीएस-लोकनीति के द्वारा एक सर्वे कुछ समय पहले किया गया था। जिसके मुताबिक प्रदेश में करीब 12 फीसद ब्राह्मण, 33 फीसद ठाकुर, सात फीसद अन्य सवर्ण, सात फीसद अन्य पिछड़ा वर्ग, 19 फीसद दलित, 14 फीसद मुसलमान व आठ फीसद अन्य वोटर हैं।जातीय जनगणना को लेकर सियासत लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखी जा रही है। वही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने कहा कि 94 वर्षों के बाद जातिगत जनगणना का जो निर्णय लिया है भाजपा उसका सम्मान करती है उन्होंने कहा कि जातिगत जनगणना से देश का सामाजिक और आर्थिक ताने बाने का पता चलेगा साथ ही उन्होंने कहा कि 1931 के बाद ये पहली बार हुआ है जब किसी सरकार ने जातिगत जनगणना की बात की है। 2011 के बाद अब प्रस्तावित है और उस समय भी ओबीसी और दूसरी जातियों का आंकलन सरकार के पास नहीं है इसलिए ये ज़रूरी है कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए जातिगत जनगणना की बात नहीं की।
जातिगत जनगणना कराने को लेकर लगातार हो रही सियासत अब एक बार फिर अपने चरम पर हैं. मोदी सरकार के इस फैसले को लेकर भारतीय जनता पार्टी अपनी पीठ थपथपा रही है. तो वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस अपनी जीत बता रही है। इसी को लेकर दोनों दल एक दूसरे पर जमकर कटाक्ष कर रहे हैं। कांग्रेस के प्रदेश संगठन उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना ने कहा कि जब संसद में नेता विपक्ष राहुल गांधी जातिगत जनगणना कराने की मांग कर रहे थे तब भाजपा के तमाम नेताओं ने उनका विरोध किया और कई प्रकार की बातें कही लेकिन अब भाजपा को विपक्ष के सामने घुटने टेकने पड़े और विपक्ष की बात माननी पड़ी तो अब भाजपा इसका श्रेय लेने की होड़ में है। लेकिन जनता जानती है की जातिगत जनगणना को लेकर किस दल का क्या योगदान है।
ऐसे में देखना यही होगा कि आखिरकार जातीय जनगणना को लेकर जो सियासी दाव-पेंच अपनाएं जा रहे हैं. उसे किस राजनीतिक दल को ज्यादा फायदा होता है। जातिगत जनगणना के केंद्र सरकार के फैसले के अलग अलग पहलुओं पर विचार करने से पहले एक पंक्ति का यह निष्कर्ष बता देना जरूरी है कि यह एक दूरदर्शी फैसला है.जिसे विचार-विमर्श के बाद देश हित को ध्यान में रख कर लिया गया है।