शिव शंकर सविता- अरावली… एक ऐसा नाम, जो सिर्फ पहाड़ों की श्रृंखला नहीं, बल्कि उत्तर भारत की सांसों की आवाज़ है। जब दुनिया के नक्शे पर आज के महाद्वीपों की शक्ल भी साफ नहीं थी, तब अरावली यहां खड़ी थी, रेगिस्तान को रोकती, नदियों को जन्म देती और सभ्यताओं को पनपने का मौका देती हुई। लेकिन अब, करीब दो अरब साल पुरानी इस जीवनरेखा के लिए वक्त सबसे कठिन है। 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने अरावली को लेकर देशभर में चिंता पैदा कर दी। अदालत ने सरकार की उस नई परिभाषा को स्वीकार कर लिया, जिसके मुताबिक अब केवल वही पहाड़ “अरावली” माने जाएंगे, जो अपने आसपास के क्षेत्र से 100 मीटर या उससे ज्यादा ऊंचे हों। सुनने में यह तकनीकी बदलाव लगता है, लेकिन इसके असर बेहद गहरे हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला अरावली के 90 प्रतिशत हिस्से से कानूनी सुरक्षा छीन लेगा। इसीलिए इसे उत्तर भारत का “डेथ वारंट” कहा जा रहा है।
90% अरावली अचानक खतरे में कैसे आ गई?
सरकारी हलफनामे के मुताबिक राजस्थान में चिन्हित 12,081 अरावली पहाड़ियों में से सिर्फ 1,048 पहाड़ ही इस नए 100 मीटर वाले मानक पर खरे उतरते हैं। यानी करीब 91 प्रतिशत पहाड़ अब कानूनी रूप से अरावली माने ही नहीं जाएंगे। यह वही हिस्से हैं, जो ऊंचाई में भले कम हों, लेकिन भूजल रिचार्ज करते हैं, जैव विविधता को संभाले हुए हैं, धूल और आंधियों को रोकते हैं, थार रेगिस्तान के फैलाव पर ब्रेक लगाते हैं अब यही इलाके खनन, रियल एस्टेट और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए खुल सकते हैं। GIS मैपिंग पहले ही बता रही है कि 3,000 से ज्यादा जगहों पर अरावली को भारी नुकसान पहुंच चुका है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर निचली पहाड़ियों पर खुलकर खनन शुरू हुआ, तो इसका असर सिर्फ राजस्थान तक सीमित नहीं रहेगा। हरियाणा, दिल्ली-NCR, गुजरात तक के एक्विफर दूषित हो सकते हैं।

क्यों कहा जाता है अरावली को उत्तर भारत का फेफड़ा?
करीब 650 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वतमाला केवल पहाड़ों की कतार नहीं है। यह चंबल, साबरमती और लूणी जैसी नदियों का उद्गम है, थार रेगिस्तान को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकती है, दिल्ली-NCR के लिए “ग्रीन लंग्स” की तरह काम करती है पर्यावरण कार्यकर्ता नीलम आहूजा, जो पिछले 12 वर्षों से People for Aravallis के साथ जुड़ी हैं, साफ शब्दों में कहती हैं, “अगर अरावली नहीं बची, तो उत्तर-पश्चिम भारत धीरे-धीरे रेगिस्तान बन जाएगा। इसका असर पानी, खेती और करोड़ों लोगों की जिंदगी पर पड़ेगा।”
फैसले पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?
यह पहली बार नहीं है जब अदालत के सामने अरावली का मुद्दा आया हो। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट खुद कह चुका है कि 31 अरावली पहाड़ खनन में गायब हो चुके हैं। इसके बावजूद, इस बार अदालत ने 2010 के पुराने मानक को आधार बनाया, जिसे पर्यावरणविद “अव्यावहारिक और विनाशकारी” मानते हैं। विवाद तब और गहराया जब यह सामने आया कि सरकार के हलफनामे में चित्तौड़गढ़ (जहां अरावली की चोटी पर किला है), सवाई माधोपुर (रणथंभौर टाइगर रिज़र्व) जैसे इलाके शामिल ही नहीं किए गए।

ज़मीन पर हालात कितने गंभीर हैं?
अरावली का विनाश कोई भविष्य की आशंका नहीं, बल्कि मौजूदा सच्चाई है। हरियाणा के भिवानी और चरखी दादरी में पहाड़ पूरी तरह मिट चुके हैं, महेंद्रगढ़ में भूजल स्तर 1,500–2,000 फीट नीचे चला गया, अवैध खनन से उड़ती धूल ने सिलिकोसिस, त्वचा और फेफड़ों की बीमारियां बढ़ा दी हैं ब्लास्टिंग से उड़ते पत्थर और डेटोनेटर रोजमर्रा का खतरा बन चुके हैं।
सड़क से संसद तक गूंजता विरोध
फैसले के बाद सोशल मीडिया पर #SaveAravalli और #SaveAravallisSaveAQI ट्रेंड कर रहे हैं। जयपुर से दिल्ली तक प्रदर्शन हो रहे हैं। हरियाणा के तोशाम हिल्स, जो अरावली की उत्तरी आखिरी सीमा माने जाते हैं, वहां ग्रामीणों ने 21 दिसंबर को प्रतीकात्मक उपवास का ऐलान किया है। राजनीतिक गलियारों में भी हलचल है। विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर खनन लॉबी को फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया है, जबकि कई विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट से फैसले पर पुनर्विचार की मांग कर रहे हैं।

आगे रास्ता क्या है?
नीलम आहूजा एक बात पर जोर देती हैं, “अरावली को 100 मीटर की पट्टी से नहीं नापा जा सकता। यह सिर्फ पहाड़ नहीं, हमारी जीवनरेखा है।” विशेषज्ञों का मानना है कि पूरे अरावली क्षेत्र को क्रिटिकल इकोलॉजिकल ज़ोन घोषित करना ही एकमात्र रास्ता है। अब सवाल सिर्फ कानून का नहीं, बल्कि भविष्य का है क्या उत्तर भारत हरा-भरा रहेगा या धीरे-धीरे रेगिस्तान में बदल जाएगा? अरावली बचेगी, तो पानी बचेगा, हवा बचेगी, ज़िंदगी बचेगी। वरना इतिहास इस फैसले को एक ऐसे “डेथ वारंट” के रूप में याद रखेगा, जिसने सब कुछ बदल दिया।