मैं और जायसवाल जी….
जब हम यह संस्मरण लिख रहे हैं, तब कानपुर के केयर टेकर पूर्व केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्रीप्रकाश जायसवाल चिर निद्रा में लीन हैं। पोखरपुर, कानपुर का वही बंगला, जहां कुछ समय पूर्व हमारी उनसे आखिरी मुलाकात हुई थी, अब उस स्थान पर उनका पार्थिव शरीर रखा था। आखिरी मुलाकात में भी उनसे निजी के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक बातें भी हुई थीं। स्वास्थ्य और जुबान उतना साथ नहीं दे रही थी, जिसके लिए वह मशहूर थे। वे मजमा तब भी लगाते और मजमा आज भी लगा था। जितने लोग उतने किस्से….। गमजदा और नम आंखों के साथ शायद ही कोई हो जिसके पास श्रीप्रकाश जी को लेकर कोई किस्सा न हो, व्यक्तिगत या सार्वजनिक। जितने लोग उतनी बातें…। आज तकरीब ढाई घण्टे तक जायसवाल जी का सानिध्य मिला। जीवित अवस्था में शायद ही कभी इतना वक्त साथ बैठें चुनाव प्रचार के दिनों को अगर छोड़ दे तो किसी के दुनिया से जाने के बाद उस व्यक्ति की कीमत समझ आती है और श्रीप्रकाश जी कनपुरियों के बेशकीतमी थे और कनपुरिए उनके लिए। यह कानपुर के लोग आज महसूस नहीं बेबाकी के साथ कह रहे थे। उनके घर हर दल, पंथ, मजहब के लोग पहुंच रहे थे और ऐसा हों भी क्यों नहीं… जीवन पर्यन्त गंगा-जमुनी तहजीब और भाईचारे के लिए वह काम करते रहे। उनके आलोचक भी उनकी सोच और व्यवहार का लोहा मानते हैं।

श्रीप्रकाश जायसवाल के लिए था कानपुर ही काशी और कानपुर ही काबा
कानपुर के अब तक जितने भी सांसद हुए हैं उन सबसे ज्यादा पब्लिक कनेक्ट अगर किसी का रहा है तो वह श्रीप्रकाश जायसवाल ही रहे हैं। मेरे साथ उनका रिश्ता एक पत्रकार और नेता के साथ-साथ यह बेहद आत्मीय और मजबूत था। इस रिश्ते की डोर कुछ यूं बुनी हुई रही कि श्रीप्रकाश जी कभी भी बेहद निजी और राजनैतिक दोनों तरह की बातें हमसे कर लिया करते थे और बीच बीच में वह मुझे खुद बुलाते या फिर आ जाते थे। यह बात और मुलाकात सिर्फ दो लोगों के बीच ही रही। मेरे पास उनके बहुत सारे किस्से हैं जिन पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। कनपुरिएपन का पहला नेता औऱ शायद आखिरी… जिसमें कानपुर को फिर से राष्ट्रीय फलक पर पहुंचाया और सेवा भी खूब की।
कानपुर की जनता के लिए खुले रहते थे हमेशा दरवाजे
श्रीप्रकाश जायसवाल कभी साधारण नेता नहीं थे। वे उस विरल होती पीढ़ी के राजनेता थे जिनके लिए जनता से जुड़ाव ही असली पूंजी था। वे अपनेपन में, अपनी ज़मीन पर, अपने शहर में सबसे ज़्यादा सहज थे। कानपुर और केवल कानपुर ही उनकी प्राथमिकता में था। फिर भी उन्होंने यह साबित किया कि एक राजनेता सिर्फ अपनी जड़ों को मजबूत करके और लोगों से निष्ठा निभाकर राष्ट्रीय स्तर पर भी कैसे चमका सकता है। पिछले 40 वर्षों से अधिक समय तक वे कानपुर के राजनीतिक जीवन में एक अद्भुत उपस्थिति थे। एक ऐसा केंद्र, जिसके इर्द-गिर्द शहर की राजनीति घूमती थी। उनकी उपलब्धता, उनकी तीक्ष्ण विनोदप्रियता, उनका मानवीय ताप, और उनके घर-दफ्तर के सदैव खुले दरवाज़े, इन सबने उन्हें कानपुर की रोज़मर्रा की संस्कृति का हिस्सा बना दिया था।

वो किस्से जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता
“जायसवाल आए थे… अभी मंत्री जी से बोल देंगे… चलो, श्रीप्रकाश जी करवा देंगे”—ये सिर्फ जुमले नहीं थे, यह कानपुर का उन पर विश्वास था। दो प्रसंग मेरे समक्ष के हैं जो उस नेता के चरित्र को उजागर करते हैं……
- कोयला मंत्री रहते एक बार वे अपने शास्त्री भवन, दिल्ली के दफ़्तर में कानपुर के स्थानीय नेताओं, कनपुरियों से बतिया रहे थे तब वहां मैं भी उपस्थित था कि तभी उनके पीएस ने बताया कि देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक मुकेश अंबानी जी उनसे मिलने आए हैं। जायसवाल ने सिर हिलाया, लेकिन पंद्रह मिनट तक उसी तरह अनौपचारिक बातचीत में लगे रहे। उनसे मिलने गए कानपुर के स्थानीय लोगों ने कहा कि पहले उद्योगपति से मिल लेना चाहिए। मुस्कुराते हुए, अपनी वही गूंजती आवाज़ में उन्होंने कहा, “अरे, मंत्री नहीं रहेंगे तो ये हमें पहचानेंगे भी नहीं। तुम लोग अपने हो, कुछ नहीं भी रहेंगे तो कम से कम सेंट्रल (कानपुर सेंट्रल स्टेशन) लेने तो आओगे।”
- 2014 में मुरली मनोहर जोशी से हार के बाद यह खबर उड़ी कि उन्हें बीजेपी की ओर से प्रस्ताव आया है। हमने उनसे पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया, “लम्बरदार पार्टी ने क्या नहीं दिया? पल्लेदार के लड़के को मेयर बनाया, प्रदेश अध्यक्ष बनाया, 3 बार सांसद बनाया, 2 बार केंद्रीय मंत्री बनाया। प्रदेश में सरकार आती तो मुख्यमंत्री भी हम ही होते। प्रधानमंत्री की औक़ात नहीं है मेरी । अब आखिरी वक़्त क्या ख़ाक मुसलमान होंगे… अब तो कांग्रेस के तिरंगे में लिपट के ही जाएंगे।” कल जब गंगा-जमुनी तहजीब के सबसे बड़े हिमायती के रूप में अपने अंतिम सफर पर निकलेंगे तो कानपुर कांग्रेस के कार्यालय तिलक हाल से पार्टी का तिरंगा झंडा मिल जाएगा जिस पर लिपट कर जाने की उनकी आखरी तमन्ना थी। श्रीप्रकाश जायसवाल को ‘मैनचेस्टर ऑफ द ईस्ट’ ने जिस स्नेह, प्रभाव और निरंतरता के साथ देखा—वैसा नेता शायद ही फिर कभी मिले। मेरी भारी मन और गमजदा दिल से श्रद्धांजलि। आपको कानपुर कभी नहीं भूल पाएगा।
( प्रधान संपादक दुर्गेंद्र चौहान की कलम से विनम्र श्रद्धांजलि….)