शरिया कानून तालिबान का मकसद

तालिबान पर देववंदी विचारधारा का पूरा प्रभाव है। तालिबान को खड़ा करने के पीछे सऊदी अरब से आ रही आर्थिक मदद को जिम्मेदार माना गया था। शुरुआती तौर पर तालिबान ने ऐलान किया कि इस्लामी इलाकों से विदेशी शासन खत्म करना, वहां शरिया कानून और इस्लामी राज्य स्थापित करना उनका मकसद है। शुरू-शुरू में सामंतों के अत्याचार, अधिकारियों के करप्शन से आजिज जनता ने तालिबान में मसीहा देखा और कई इलाकों में कबाइली लोगों ने इनका स्वागत किया, लेकिन बाद में कट्टरता ने तालिबान की ये लोकप्रियता भी खत्म कर दी, लेकिन तब तक तालिबान इतना पावरफुल हो चुका था कि उससे निजात पाने की लोगों की उम्मीद खत्म हो गई। क्या तालिबान वाकई में रूस अमेरिका के कोल्ड वार का शिकार बनकर धीरे धीरे वर्चस्व में आता गया और क्या अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव खत्म करने के लिए तालिबान के पीछे अमेरिकी समर्थन माना गया ये एक बड़ा सवाल रहा।

रूस-अमेरिका के कोल्ड वॉर का बना शिकार !

शुरुआती दौर में अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव खत्म करने के लिए तालिबान के पीछे अमेरिकी समर्थन माना गया, लेकिन 9/11 के हमले ने अमेरिका को कट्टर विचारधार की आंच महसूस कराई और वो खुद इसके खिलाफ जंग में उतर गया। काबुल-कंधार जैसे बड़े शहरों के बाद पहाड़ी और कबाइली इलाकों से तालिबान को खत्म करने में अमेरिकी और मित्र देशों की सेनाओं को पिछले 20 साल में भी सफलता नहीं मिली। खासकर पाकिस्तान से सटे इलाकों में तालिबान को पाकिस्तानी समर्थन ने जिंदा रखा और आज अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ ही तालिबान ने फिर सिर उठा लिया और तेजी से पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया। तालिबान कट्टर धार्मिक विचारों से प्रेरित कबाइली लड़ाकों का संगठन है। इसके अधिकांश लड़ाके और कमांडर पाकिस्तान-अफगानिस्तान के सीमा इलाकों में स्थित कट्टर धार्मिक संगठनों में पढ़े लोग, मौलवी और कबाइली गुटों के चीफ हैं। घोषित रूप में इनका एक ही मकसद है पश्चिमी देशों का शासन से प्रभाव खत्म करना और देश में इस्लामी शरिया कानून की स्थापना करना। पहले मुल्ला उमर और फिर 2016 में मुल्ला मुख्तर मंसूर की अमेरिकी ड्रोन हमले में मौत के बाद से मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा तालिबान का चीफ रहा। वह तालिबान के राजनीतिक, धार्मिक और सैन्य मामलों का सुप्रीम कमांडर है। हिब्तुल्लाह अखुंजादा कंधार में एक मदरसा चलाता था और तालिबान की जंगी कार्रवाईयों के हक में फतवे जारी करता था। 2001 से पहले अफगानिस्तान में कायम तालिबान की हुकूमत के दौरान वह अदालतों का प्रमुख भी रहा था. उसके दौर में तालिबान ने राजनीतिक समाधान के लिए दोहा से लेकर कई विदेशी लोकेशंस पर वार्ता में भी हिस्सा लेना शुरू किया।

रणनीति के तहत चला था तालिबान

साल 2001 से शुरू हुई अमेरिकी और मित्र सेनाओं की कार्रवाई में पहले तालिबान सिर्फ पहाड़ी इलाकों तक ढकेल दिया गया लेकिन 2012 में नाटो बेस पर हमले के बाद से फिर तालिबान का उभार शुरू हुआ। 2015 में तालिबान ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कुंडूज के इलाके पर कब्जा कर फिर से वापसी के संकेत दे दिए। ये ऐसा वक्त था जब अमेरिका में सेनाओं की वापसी की मांग जोर पकड़ रही थी। अफगानिस्तान से अमेरिका की रूचि कम होती गई और तालिबान मजबूत होता गया। इसी के साथ पाकिस्तानी आतंकी संगठनों, पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की खुफिया मदद से पाक सीमा से सटे इलाकों में तालिबान ने अपना बेस मजबूत किया।अफगानिस्तान से लौटने की अपनी कोशिशों के तहत 2020 में अमेरिका ने तालिबान से शांति वार्ता शुरू की और दोहा में कई राउंड की बातचीत भी हुई। एक तरफ तालिबान ने सीधे वार्ता का रास्ता पकड़ा तो दूसरी ओर बड़े शहरों और सैन्य बेस पर हमले की बजाय छोटे-छोटे इलाकों पर कब्जे की रणनीति पर काम करना शुरू किया। अप्रैल 2021 में अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाइडेन के ऐलान के बाद तालिबान ने मोर्चा खोल दिया और 90 हजार लड़ाकों वाले तालिबान ने 3 लाख से अधिक अफगान फौजों को सरेंडर करने को मजबूर कर दिया। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी, उनके प्रमुख सहयोगियों, तालिबान से लड़ रहे प्रमुख विरोधी कमांडर अब्दुल रशीद दोस्तम और कई वॉरलॉर्ड्स को ताजिकिस्तान और ईरान में शरण लेना पड़ा है। तालिबान के कब्जे के साथ ही काबुल में अफरातफरी मच गई। लोग शहर छोड़कर भाग रहे हैं। 20 साल बाद सत्ता में लौटे तालिबान को लेकर लोगों में खौफ क्यों है यह जानने के लिए 23 साल पीछे चलना होगा।

तालिबानी फरमान का दौर शुरू

1998 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर देश पर शासन शुरू किया तो कई फरमान जारी किए। पूरे देश में शरिया कानून लागू कर दिया गया और न मानने वालों को सरेआम सजा देना शुरू किया। विरोधी लोगों को चौराहों पर लटकाया जाने लगा। हत्या और यौन अपराधों से जुड़े मामलों में आरोपियों की सड़क पर हत्या की जाने लगी। चोरी करने के आरोप में पकड़े गए लोगों के शरीर के अंग काटना, लोगों को कोड़े मारने जैसे नजारे सड़कों पर आम हो गए। मर्दों को लंबी दाढ़ी रखना और महिलाओं को बुर्का पहनने और पूरा शरीर ढंक कर निकलना अनिवार्य कर दिया गया। घरों की खिड़कियों के शीशे काले रंग से रंगवा दिए गए। टीवी, संगीत और सिनेमा बैन कर दिए गए। 10 साल से अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी गई। बामियान में बुद्ध की ऐतिहासिक मूर्ति को तोड़कर तालिबान ने धार्मिक कट्टरता भी दुनिया को दिखाई। तालिबान के इस शासन को मान्यता देने वाले तीन देश थे- पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई। तालिबान की मुख्य ताकत है कट्टर धार्मिक संस्थाएं, मदरसे जो उनके विचार को सपोर्ट कर रहे हैं। यहीं से तालिबान लड़ाके तैयार हो रहे हैं। लेकिन इन सबसे ज्यादा पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की सीक्रेट मदद तालिबान के लिए मददगार साबित हुई है।

अन्तर्राष्ट्रीय रुख भी असमंजस वाला

अफगानिस्तान को लेकर अंतरराष्ट्रीय रूख भी असमंजस वाला है। अमेरिका और मित्र देशों की सेनाओं की वापसी के ऐलान ने अफगानिस्तान को जैसे थाली में परोसकर तालिबान के सामने पेश कर दिया। रूस तालिबान को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं है। अमेरिकी प्रभुत्व खत्म करने के लिए तालिबान के उभार से जहां रूस खुश है वहीं पड़ोस के ताजिकिस्तान-उजबेकिस्तान जैसे रूसी प्रभाव वाले देशों के लिए खतरे के रूप में भी वह तालिबान को देख रहा है। पाकिस्तान तालिबान के पीछे है और ऐसे में चीन को भी तालिबान शासन में अफगानिस्तान में प्रभाव बढ़ने की संभावना दिख रही है।

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