मनोरंजन, पीयूष मिश्रा एक चर्चित अभिनेता, नाटककार और बेहतरीन गीतकार भी है, उनका पहला उपन्यास ‘तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा’ प्रकाशित होते ही किताबें बाजार में छा गईं है। पीयूष मिश्रा के फैंस ही नहीं बल्कि तमाम लोग जो उपन्यास पढ़ने के शौकीन है इस आत्मकथात्मक उपन्यास की इतनी मांग कर रहे है की ऑनलाइन ऑफलाइन सभी तरह के इस किताब को खरीदने के जतन में लगे है। ये किताब ऑनलाइन शॉपिंग साइट अमेज़न पर सभी भाषाओं की सभी श्रेणियों की किताबों में यह पहले स्थान पर पहुंच गया है। एक सप्ताह के अंदर ‘तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा’ के तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
‘तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा’ का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने किया है। पिछले सप्ताह चंडीगढ़ में आयोजित ‘राजकमल किताब उत्सव’ में इस किताब का लोकार्पण हुआ था। राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने बताया कि ‘तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा’ प्रकाशित होते ही पाठकों की पहली पसंद बन गई है। उन्होंने बताया कि पाठकों के बीच इस उपन्यास को लेकर असाधारण उत्साह है। इस पुस्तक की 3300 प्रतियों का पहला संस्करण 10 फरवरी प्रकाशित हुआ था जो देखते-देखते समाप्त हो गया। इसके बाद 5,500 प्रतियों का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। दूसरा संस्करण भी जल्द समाप्त हो गया और लगातार आ रही मांग को देखते हुए 7,700 प्रतियों का तीसरा संस्करण 16 फरवरी को प्रेस भेजना पड़ा।
अशोक महेश्वरी ने कहा कि हिंदी पाठकों का यह उत्साह हमारे लिए बेहद ही खास है, लोग अभी भी उपन्यासों को हिंदी में पढ़ना चाहतेहै। आज के पाठकों की दिलचस्पी और अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक हो चुका है। साहित्य का दायरा भी पारंपरिक विधाओं और विषयों से काफी आगे बढ़ चुका है। पीयूष मिश्रा के आत्मकथात्मक उपन्यास के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया उनके मिजाज और अपेक्षाओं का स्पष्ट संकेत है। उन्होंने कहा कि हम विभिन्न विधाओं और विषयों की स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन के जरिये अपने पाठकों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। ‘तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा’ का प्रकाशन इसी की कड़ी है।
“तुम्हारी औक़ात क्या है पीयूष मिश्रा”
सब कुछ तो है
फिर भी क्या है
होकर भी जो ना होता
अचरज करता ये मिज़ाज
मैं ना भी होता क्या होता
नद्दी नाले बरखा बादल
वैसे के वैसे रहते
पर फिर भी जो ना होता ‘वो
जो ना होता’ वो क्या होता
खड़ी ज़िंदगी मोड़ की पुलिया
पे जा के सुस्ता लेती
धीमी पगडंडी पे बैठा
एक तेज़ रस्ता होता
पनघट नाचत धम्म-धम्म
और जाके रुकता मरघट पे
पनघट के संग मरघट की
जोड़ी का अलग मज़ा होता
शाम की महफ़िल रात अँधेरे
राख बनी मिट्टी होती
ठंडी ग़ज़लें सर्द नज़्म
बस एक शे’र सुलगा होता
आग गई और ताब गई
इंसाँ पग्गल-सा नाच उठा
काश कि कल की तरह आज भी
मैं बिफरा-बिफरा होता...