KNEWS DESK- देश में सार्वजनिक शौचालय के प्रवर्तक बिंदेश्वरी पाठक को ‘भारत के टॉयलेट मैन’ के तौर पर पर जाना जाता है। टॉयलेट क्रांति के जनक और सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक- सामाजिक कार्यकर्ता बिंदेश्वर पाठक का बीते मंगलवार को कार्डियक अरेस्ट से दिल्ली के एम्स में निधन हो गया।
बिंदेश्वरी पाठक ने स्वच्छ भारत मिशन से सालों पहले शौचालय को सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा बनाया था। हालांकि, इसके लिए उन्हें अपने ससुर सहित कई लोगों के उपहास का भी सामना करना पड़ा था। पाठक ने एक बार बताया था कि उनके ससुर महसूस करते थे कि उन्होंने अपनी बेटी की जिंदगी बर्बाद कर दी है क्योंकि वह नहीं बता सकते कि उनका दामाद जीवनयापन के लिए क्या करता है। पाठक का बीते मंगलवार को ध्वजारोहण के तुरंत बाद दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। उन्होंने 1970 में सुलभ की स्थापना की थी जो सार्वजनिक शौचालय का पर्याय बन गया और खुले में शौच को रोकने के लिए जल्द ही यह आंदोलन बन गया।
कार्यकर्ता और सामाज सेवी पाठक को कई लोग ‘सैनिटेशन सांता क्लास’ कहते थे। उनका जन्म बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बघेल गांव में हुआ था और परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है। कॉलेज और कुछ लीक से अलग नौकरियों को करने के बाद वह 1968 में बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति के भंगी-मुक्ति (मैला उठाने वालों की मुक्ति) प्रकोष्ठ में शामिल हो गए। उन्होंने भारत में मैला उठाने की समस्या को रेखांकित किया। जब उन्होंने देश भर की यात्रा की और अपनी पीएचडी शोधपत्र के हिस्से के रूप में सिर पर मैला ढोने वालों के साथ रहे तो उन्हें नयी पहचान मिली।
’75 रुपए से सुलभ इंटरनेशनल का आइडिया…’
बिंदेश्वर पाठक ने एक इंटरव्यू में बताया था कि जब संस्था की नींव रखने के लिए बैठे, तब 9 लोगों के बीच बातचीत हुई. उस समय सभी के लोगों की जेबों में किसी के पास 5 तो किसी के पास 7 रुपए थे। कोई 10 रुपए लिए था. एकट्ठा किए तो कुल 75 रुपए हुए। ना कोई साधन था, ना पैरवी और परिचय था. उस हालात में शुरुआत हुई. एक घर से संस्था की शुरुआत हुई। किसी भी काम के लिए विजन क्लीयर होना जरूरी है। समस्या क्या है और उसका समाधान क्या हो सकता है… उसे मिशन के तौर पर काम करने से सफलता मिलती है। काम के प्रति कमिटमेंट रहा। कैपिबिलटी भी विकसित की। हम लोगों ने मेहनत की तब दुनिया में नंबर वन हो पाए।
बिंदेश्वर पाठक ने कहते हैं कि हम लोगों ने कुछ समय के लिए राजनीति में काम किया, जिससे संस्था को नुकसान पहुंचा. बाद में हमने दूरी बनाई। लक्ष्य से भटकने में गड़बड़ हो जाती है. उन्होंने बताया था कि मैं पहले समाज शास्त्र का टीचर बनना चाहता था, लेकिन सपना पूरा नहीं हुआ। फिर अन्य नौकरियां करने का मौका भी मिला. अंत में ‘बिहार गांधी जन्म शताब्दी समिति’ नाम की संस्था से सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में जुड़ गया. ये संस्था पटना में गांधी जी की 100वीं जयंती मनाने के लिए बनाई गई थी. वहां मैला ढोने की प्रथा पर चर्चा हुई और इसे अमानवीय बताया गया।
“जब रोने लगी नई दुल्हन”
वो कहते हैं कि एक नई नवेली दुल्हन थी, उसे उसकी सास मैला ढोने के लिए भेजना चाहती थी. लेकिन वो जाने को तैयार नहीं थी. रो रही थी. हमने सुना तो वहां गया. पूछा और कहा कि अगर बहू मैला नहीं ढोना चाहती है तो उसे क्यों भेज रही हैं? इस पर सास ने कहा कि अगर यह मैला नहीं ढोएगी तो आजीविका कैसे चलेगी. कल से क्या काम करेगी? अगर ये सब्जी बेचेगी तो कोई इसके हाथ से खरीदेगा नहीं। हमारे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था। समाज की जेल में निकलने की व्यवस्था ही नहीं थी. लोग एक बार मरते हैं, वो हर रोज हजार बार मरते थे. सामाजिक तिरस्कार झेलते थे. ब्राह्मण मेरे खिलाफ थे. मुझे बैठने नहीं देते थे। और ऐसी कई घटनाएं हैं।
ऐसे आया आइडिया
बिंदेश्वर पाठक का जन्म बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बाघेल गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके परिवार में पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा है. कॉलेज और कुछ छोटी-मोटी नौकरियों के बाद वे 1968 में बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति के भंगी-मुक्ति (मैला ढोने वालों की मुक्ति) सेल में शामिल हो गए।
उन्हें भारत में मैला ढोने वालों की समस्याओं से गहराई से अवगत कराया गया. उन्होंने देशभर की यात्रा की और अपनी पीएचडी थीसिस के हिस्से के रूप में हाथ से मैला ढोने वालों के साथ रहे तो उन्हें एक नई पहचान मिली. उन्होंने तकनीकी नवाचार को मानवीय सिद्धांतों के साथ जोड़ते हुए सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की।
पाठक द्वारा तीन दशक पहले सुलभ शौचालयों को फर्मेन्टेशन प्लांट (fermentation plants) से जोड़कर बायोगैस बनाने का डिजाइन लाया गया। अब यह दुनियाभर के विकासशील देशों में स्वच्छता का पर्याय बन गया है।
पाठक के प्रोजेक्ट की एक विशिष्ट विशेषता यह रही कि गंध मुक्त बायोगैस का उत्पादन करने के अलावा, यह फॉस्फोरस और अन्य अवयवों से भरपूर स्वच्छ पानी भी छोड़ता है जो जैविक खाद के महत्वपूर्ण घटक हैं. उनका स्वच्छता आंदोलन स्वच्छता सुनिश्चित करता है। और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को रोकता है. ग्रामीण समुदायों तक इन सुविधाओं को पहुंचाने के लिए इस तकनीक को अब दक्षिण अफ्रीका तक बढ़ाया जा रहा है।
पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित पाठक को एनर्जी ग्लोब अवॉर्ड, बेस्ट प्रैक्टिस के लिए दुबई इंटरनेशनल अवॉर्ड, स्टॉकहोम वाटर प्राइज, पेरिस में फ्रांसीसी सीनेट से लीजेंड ऑफ प्लैनेट अवॉर्ड समेत अन्य पुरस्कार भी दिए गए थे।
पोप जॉन पॉल द्वितीय ने 1992 में पर्यावरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सेंट फ्रांसिस पुरस्कार से डॉ. पाठक को सम्मानित करते हुए सराहना की थी और कहा- आप गरीबों की मदद कर रहे हैं।
दुनियाभर का सबसे अजीब संग्रहालय
बिंदेश्वर पाठक ने एक बार कहा था कि मैडम तुसाद का दौरा करने के बाद उन्होंने शौचालयों का एक संग्रहालय स्थापित करने के बारे में सोचा था। इस संग्रहालय को अक्सर दुनियाभर के सबसे अजीब संग्रहालयों में से एक में सूचीबद्ध किया जाता है। यह संग्रहालय 1970 के दशक में शुरू हुई उनकी यात्रा के बारे में बताता है। तब उन्होंने स्वच्छता पर महात्मा गांधी के मार्ग पर चलने और समाज के सबसे निचले तबके के लोगों के उत्थान का फैसला किया था।