KNEWS DESK- सुप्रीम कोर्ट में सोमवार से एक बेहद अहम संवैधानिक मुद्दे पर बहस शुरू हुई। मामला यह है कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों को संसद या विधानसभा द्वारा पारित बिलों पर हस्ताक्षर करने के लिए कोई तय समयसीमा बाध्य की जा सकती है या नहीं? यह सवाल खुद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत पूछा है।
हालांकि इस पर राजनीति भी गरमा गई है। तमिलनाडु और केरल की विपक्ष-शासित सरकारों ने राष्ट्रपति के इस कदम को चुनौती देते हुए कहा है कि यह वास्तव में केंद्र सरकार का एजेंडा है, जिसे राष्ट्रपति के नाम पर आगे बढ़ाया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई कर रहे हैं, ने शुरुआत में ही पूछा पीठ ने स्पष्ट किया कि यह कार्यवाही सलाहकार अधिकार-क्षेत्र में हो रही है, यानी अदालत अभी कोई आदेश नहीं दे रही, बल्कि संवैधानिक राय दे रही है।
इस वर्ष अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था, जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल किसी भी विधेयक पर जितनी जल्दी संभव हो, निर्णय लें। यदि बिल राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, तो तीन महीने के भीतर राष्ट्रपति को फैसला लेना होगा। राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी ही होगी — बिल रोकने का विवेकाधिकार नहीं है।
इस फैसले के बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे हैं, जिनमें मुख्य यह है कि क्या अदालत समयसीमा तय कर सकती है? और अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या कैसे की जाए?
तमिलनाडु और केरल सरकारों ने दलील दी है कि यह पूर्व के सुप्रीम कोर्ट फैसले को पलटने की एक कोशिश है। उनका कहना है कि यह राष्ट्रपति का नहीं, बल्कि केंद्र सरकार का संदर्भ है। ऐसे संदर्भों के ज़रिए संवैधानिक फैसलों को दोबारा समीक्षा के लिए खोलना संवैधानिक परंपरा के खिलाफ है।
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने जवाब में कहा है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल पर किसी भी तरह की समयसीमा थोपना संविधान के शक्ति-विभाजन के सिद्धांत का उल्लंघन होगा। यदि न्यायपालिका कार्यपालिका पर समयसीमा थोपती है, तो यह अदालती अतिक्रमण (Judicial Overreach) माना जाएगा। इससे संवैधानिक संतुलन बिगड़ सकता है और तीनों अंगों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।