KNEWS DESK, 2025 का महाकुंभ मेला 13 जनवरी से प्रयागराज में शुरू हो चुका है और इसका समापन 26 फरवरी को महाशिवरात्रि के दिन होगा। कुंभ के समापन के बाद नागा साधु अपने-अपने अखाड़ों में लौट जाते हैं। अगला कुंभ मेला 2027 में नासिक के गोदावरी नदी के तट पर आयोजित किया जाएगा। पिछली बार नासिक में कुंभ 2015 में जुलाई से सितंबर तक लगा था।
नागा साधुओं का अखाड़ों में जीवन
महाकुंभ के समापन के बाद नागा साधु अपने अखाड़ों में लौट जाते हैं। ये अखाड़े देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित हैं, जैसे वाराणसी, हरिद्वार, ऋषिकेश, उज्जैन और प्रयागराज। यहां वे ध्यान, साधना और धार्मिक शिक्षा में समय बिताते हैं। कुछ नागा साधु हिमालय, जंगलों और एकांत स्थानों में कठोर तपस्या करते हैं।
नागा साधु और कुंभ मेले का संबंध
महाकुंभ में नागा साधु विशेष आकर्षण का केंद्र होते हैं। कुंभ मेले का पहला शाही स्नान नागा साधु करते हैं, जिसके बाद अन्य श्रद्धालु स्नान कर सकते हैं। नागा साधु त्रिशूल, भस्म, रुद्राक्ष की माला और कभी-कभी जानवरों की खाल धारण करते हैं। कुंभ के बाद वे गमछा पहनकर अपने अखाड़ों में निवास करते हैं।
दिगंबर स्वरूप का महत्व
नागा साधु कुंभ के दौरान दिगंबर स्वरूप (निर्वस्त्र) में रहते हैं। इसका अर्थ है कि धरती को बिछौना और अम्बर को ओढ़ना मानते हुए तपस्या करना। समाज में यह स्वरूप स्वीकार्य नहीं है, इसलिए कुंभ के बाद वे साधारण वस्त्र धारण कर लेते हैं।
कुंभ मेले का महत्व और समय
कुंभ मेला चार स्थानों पर आयोजित होता है:
- प्रयागराज: सूर्य के मकर राशि और गुरु के वृष राशि में होने पर गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर कुंभ लगता है।
- हरिद्वार: जब गुरु कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में होते हैं, तब हरिद्वार में गंगा के तट पर कुंभ आयोजित होता है।
- नासिक: जब गुरु और सूर्य सिंह राशि में होते हैं, तब गोदावरी नदी के तट पर कुंभ लगता है।
- उज्जैन: सिंह राशि में गुरु और मेष राशि में सूर्य के होने पर क्षिप्रा नदी के तट पर कुंभ का आयोजन होता है।
नागा साधुओं की तपस्या और जीवनशैली
कुंभ के बाद नागा साधु हिमालय या जंगलों में तपस्या करने चले जाते हैं। वे फल-फूल खाकर जीवन यापन करते हैं और कठोर साधना में लीन रहते हैं। उनकी तपस्वी जीवनशैली आम लोगों के लिए एक प्रेरणा है। महाकुंभ न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व भी रखता है। यह मेले की परंपराएं और नागा साधुओं की साधना भारतीय संस्कृति का अनमोल हिस्सा हैं।