देहरादून। देवभूमि उत्तराखंड में पर्व और त्योहारों की महक और चमक पूरे वर्ष भर ही रहती हैं। पर्व और त्योहारों की यहां लम्बी श्रंखला है साल भर या यूँ कह लीजिए कि यहां प्रत्येक महिने ही कुछ न कुछ त्योहार मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही हैं।इन पर्व त्योहरों और कौथिको को लेकर जीवन के अंतिम दिन जी रहे बुजुर्ग में भी ठीक वही उत्साह और उमंग रहता है जो कि पहली बार इन पर्वों को मना रहे बच्चे के मन में रहता है और हो भी क्यों नही इन पर्वों कि बात ही इतनी निराली है। कि मन खुद बा खुद एक अदृश्य शक्ति के साथ उनकी और खींचा चला जाता है।
अपने देवी देवताओं के प्रति अटूट श्राद्धा विश्वास और इस अद्भुत अकल्पनीय और अविस्मरणीय संस्कृति के प्रति हर कोई अपनी पूरी जिम्मेदारी के साथ इने स्वागत करने और इनको मनाने के लिए तैयार रहता है। मन को अलग ही सुकुन और परमानंद की अनुभूति कराते है देवभूमि के ये लोक पर्व ।
त्योहारों की इसी श्रृंखला में आज मैं जिस त्यौहार की बात कर रहा हूं वो पर्व प्रकृति से मानव भावना को जोड़ने वाला और प्रकृति से जुड़ाव के लिए एक अलग ही तरह की अनुभूति और भाव पैदा करने वाला पर्व हैं। इस पर्व का नाम है फूलदेई ये पर्व चैत्र मास की एक गति को यानि आमतौर पर 14 या 15 मार्च को मनाया जाता है। चैत्र मास मेें बसंत के आगमन पर उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के बच्चों छोटी छोटी गोलियां बनाकर जंगलों से विभिन्न प्रकार के फूलों जैसे फ्योंली,बुरांस,पंया आदि अनेक प्रकार के फूलों के तोड़ते है और फूल संक्रांति के अवसर पर गांव के घर घर में जाकर घर की देहली पर इन फूलों को डालते है और साथ में गाने भी गाते है।
फूलदेई ,फूलदेई,
छम्मा देइ , छम्म देई,
दैणी द्वार,
भर भकार,
यो देली सौ,
बरंबार नमस्कार।
छम्मा देइ , छम्म देई,
दैणी द्वार,
भर भकार,
यो देली सौ,
बरंबार नमस्कार।
मनें तो इन गितो को सुनकर मन को अलग ही आनंद मिलता है। इन्ही गीतो का आनंद लेते हुए घर के मालिक भी फूल डालने आये बच्चों को चावल,गुढ,पैसों के साथ ही अनेक उपहार देते है। और बड़ी गर्मजोशी के साथ इस पर्व को मनाते है। कई कई जगह ये पर्व आठ-आठ दिन तक चलता है और किसी किसी जगह महज एक ही दिन चलता है। वही क्षेत्र विशेष के हिसाब से भी इस पर्व को मनाने की परंपरा है। कही तो घेघा माता की डोली भी बनायी जाती है। और कही सिर्फ फूल डालने की ही परंपरा है।
लेकिन पलायन की मार झेल रही पहाड़ और पहाड़ी संस्कृति से ये पर्व भी अब धीरे धीरे अपने पांवो को सीमेंट रहा है। और ये पर्व भी अब धीरे धीरे विलुप्त हो रहा है। पहाड़ तरस रहा है उन फूल देही के गीतो को सुनने के लिए पहाड अब तरस रहा है बच्चों की उन छोटी छोटी टोलीयो के साथ इस दिव्य पर्व को मनाने के लिए पहाड़ तरस रहा है प्यारे प्यारे मासूम बच्चों को अनेक तरह के उपहार देने के लिए।