KNEWS DESK- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले द्वारा संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त शब्द ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ को लेकर उठाए गए सवाल के बाद देश की राजनीति में एक नई बहस छिड़ गई है। इस बयान के समर्थन में जहां भाजपा नेता सामने आए हैं, वहीं कांग्रेस ने इसे सीधा संविधान पर हमला करार दिया है।
केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आरएसएस नेता के बयान का समर्थन करते हुए कहा कि “सर्वधर्म समभाव भारतीय संस्कृति की आत्मा है, न कि धर्मनिरपेक्षता। यह शब्द इमरजेंसी के दौरान संविधान में जोड़ा गया था और अब समय आ गया है कि इस पर गंभीर विचार हो।”
उन्होंने आगे कहा कि भारत का मूल दर्शन ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘अयं निजः परो वेति’ जैसे विचारों में रचा-बसा है। “हमारे यहां ‘सियाराम मय सब जग जानी’ की भावना है, इसलिए समाजवाद शब्द की भी जरूरत नहीं है। समाज को एकरूप मानने की हमारी परंपरा हजारों वर्षों पुरानी है।”
शिवराज के अनुसार, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ जैसे शब्द भारत की सांस्कृतिक विरासत से मेल नहीं खाते, और इसलिए संविधान की प्रस्तावना से इन्हें हटाने पर विचार किया जाना चाहिए।
कांग्रेस ने इन बयानों की कड़ी आलोचना करते हुए आरएसएस और बीजेपी पर संविधान को कमजोर करने की साजिश का आरोप लगाया है। पार्टी नेताओं ने कहा कि यह बहस महज शब्दों की नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की आत्मा पर हमला है।
कांग्रेस प्रवक्ताओं ने साफ कहा, “संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ जैसे शब्द भारत के बहुलतावादी चरित्र और सामाजिक न्याय के प्रतीक हैं। इन्हें हटाने की बात करना संविधान विरोधी मानसिकता को दर्शाता है।”
कांग्रेस का यह भी कहना है कि “आरएसएस और बीजेपी संविधान को अपने हिसाब से ढालना चाहते हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं होने देंगे। देश की आत्मा से खिलवाड़ की किसी भी कोशिश का पुरजोर विरोध किया जाएगा।”
गौरतलब है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए थे। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है – राज्य किसी एक धर्म को न बढ़ावा देगा, न किसी धर्म के खिलाफ भेदभाव करेगा। समाजवाद का अर्थ है – समाज में संसाधनों का न्यायोचित वितरण और सामाजिक समानता।
इन दोनों शब्दों को हटाने की मांग को विपक्षी दल भारत के संविधान की मूल आत्मा पर हमला मान रहे हैं, जबकि आरएसएस और बीजेपी की तरफ से यह तर्क दिया जा रहा है कि भारत की संस्कृति इन मूल्यों को पहले से ही आत्मसात किए हुए है और अलग से इन्हें जोड़ने की जरूरत नहीं है।
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