KNEWS DESK, 18 सितंबर से पितृपक्ष की शुरुआत हो गई है, इसमें लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध और तर्पण करते हैं। ऐसा माना जाता है कि बिहार के गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह स्थान कैसे राक्षसों की नगरी से मोक्ष स्थली या पवित्र स्थल बना? आइए जानते हैं इसके पीछे की वजह।
गया का इतिहास विष्णु पुराण में वर्णित गयासुर नामक राक्षस से जुड़ा है। गयासुर ने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या कर एक वरदान प्राप्त किया था: जो भी प्राणी उसे देखेगा, वह यमलोक का मुंह नहीं देख सकेगा। इस वरदान के चलते, हर व्यक्ति जो गयासुर को देखता, उसकी आत्मा सीधे विष्णु लोक चली जाती। इस स्थिति ने यमराज को चिंता में डाल दिया। उन्होंने देखा कि यदि यही क्रम चलता रहा, तो विष्णु लोक पापियों से भर जाएगा। यमराज ने ब्रह्मा, विष्णु और शिव से इस समस्या का समाधान करने की प्रार्थना की। ब्रह्मा जी ने यमराज को आश्वासन दिया कि जल्द ही इस समस्या का हल निकाला जाएगा। ब्रह्मा जी गयासुर से मिलने गए और उसे एक यज्ञ करने का प्रस्ताव दिया। गयासुर ने सहर्ष स्वीकार किया। देवताओं ने गयासुर की पीठ पर एक पत्थर रखकर यज्ञ शुरू किया। यज्ञ समाप्त होने के बाद, विष्णु जी ने गयासुर के समर्पण को देखकर उसे एक विशेष वरदान दिया। उन्होंने कहा कि इस स्थान का नाम “गया” होगा और जो भी यहां आकर पिंडदान करेगा, उसके पूर्वजों की आत्मा को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी। वहीं गयासुर की पीठ पर रखा गया पत्थर आज “प्रेत शिला” के नाम से जाना जाता है। यह स्थल आज भी पितरों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है, जहां लोग अपने पूर्वजों की आत्मा को शांति देने के लिए पिंडदान करते हैं। गया आज सिर्फ पितृपक्ष के समय में ही नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म के लिए भी महत्वपूर्ण है। यहां पर तीर्थयात्री देश-विदेश से आते हैं, और हर वर्ष पितृपक्ष के दौरान मेले का आयोजन होता है। गया की यह अनोखी कथा न केवल इसकी ऐतिहासिक महत्ता को दर्शाती है, बल्कि यह भी बताती है कि कैसे एक राक्षस की कहानी एक पवित्र स्थल में तब्दील हो गई। पितृ पक्ष में, जब हम अपने पूर्वजों को याद करते हैं, तब गया का महत्व और भी गहरा हो जाता है। इस पवित्र स्थान पर जाकर लोग न केवल अपने पूर्वजों की आत्मा को शांति देते हैं, बल्कि मोक्ष की दिशा में भी एक कदम बढ़ाते हैं।