फतेहपुर: आधुनिकता के दौर में सावन में अब पहले की तरह न तो पेड़ों पर झूले दिखते हैं और न ही कजरी के गीत सुनने को मिलते हैं। बुजुर्ग महिलाओं तक ही अब सावन के दौरान गाई जाने वाली कजरी और मल्हार सिमट कर रह गए हैं। नई पीढ़ी तो इन गीतों के अर्थ भी नहीं निकाल पाएगी। सावन के गीत के स्थान पर तेज म्यूजिक के बीच अब फिल्मी और गैर फिल्मी गीत ही सुनने को मिलते हैं। सावन आता है और कब बीत जाता है, किसी को पता ही नहीं चलता। पुरानी परंपराएं और परंपरागत गीत नए जमाने के शोरगुल में दबकर रह गए हैं।
सावन के महीने में झूला झूलने की परंपरा वर्षों पुरानी है। हाथों में मेहंदी लगाए महिलाएं, युवतियां ‘राधा झूला झूल रही श्याम संग श्याम, सावन में झूला झूल रहे, राधा संघ कुंज बिहारी जैसे गीत सावन के महीने गाए जाते थे। आधुनिकता के दौर में शहर तो दूर ग्रामीण क्षेत्रों में भी झूला झूलतीं महिलाएं कम ही देखने को मिलती हैं। आषाढ़ माह की गर्मी के चलते पहले जब सावन में वर्षा की फुहार से प्रकृति प्रफुल्लित होती थी। चारों ओर हरियाली होने से मन खुश हो जाता था। इसी मंशा से गांव की बालिकाएं और ससुराल से पीहर लौटकर आने वाली नवविवाहिताएं शाम को अपने काम से फुरसत होकर अपने सोलह श्रृंगार करके झूले में पेंगें बढ़ाती थीं।
दो दशक से गुम हो गईं परम्पराएं
बुजुर्ग बतातें हैं कि करीब दो दशक पहले तक सावन महीने में चारों ओर छाई हरियाली के साथ ही गांवों में जगह-जगह पेड़ की शाखाओं पर झूले पड़ जाते थे। शाम को घर का सारा कामकाज निपटाकर मोहल्ले की महिलाओं का समूह रात में कजरी लोकगीत की धुन पर पेंगा मारते हुए झूला झूलती नजर आती थी। लेकिन, बदलते परिवेश और नए जमाने के अत्याधुनिक झूलों के युग में अब गांवों में पेड़ की डालियों पर पड़ने वाले झूले बहुत कम ही दिखाई पड़ते हैं। आधुनिक चकाचौंध एवं बेरुखी के चलते यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त सी होती दिख रही है।
झूला झूलने की परंपरा बनाती थी सौहार्द
सावन में झूला झूलना शारीरिक व मानसिक दृष्टि से भी अच्छा है। महिलाओं में आपस में सामूहिक तौर पर प्रेम बना रहता था। इससे रिश्ते भी मधुर रहते थे, लेकिन अब आपसी फूट व कलह से झूला झूलने व वृक्षों की बढ़ती कटान के कारण शहरों तथा गांवों में बागों के उजड़ने के कारण कमी आई है।