छत्तीसगढ़ के धमतरी में देवी-देवताओं को कटघरे में खड़ा करने की अनोखी परंपरा, सुनवाई के बाद दिया जाता दंड

KNEWS DESK – छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में एक अनोखी परंपरा का पालन किया जाता है, जिसमें देवी-देवताओं को भी कटघरे में खड़ा कर न्याय के कटघरे से गुजरना पड़ता है। यहां की यह अद्वितीय परंपरा न केवल धार्मिक आस्थाओं को दर्शाती है, बल्कि आदिवासी समाज की संस्कृति और न्याय प्रणाली को भी उजागर करती है।

भंगाराव माई का न्यायालय: देवी-देवताओं की अदालती सुनवाई

आपको बता दें कि छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के कुर्सीघाट बोराई में हर साल भादों महीने की नियत तिथि पर भंगाराव माई की यात्रा आयोजित की जाती है। इस यात्रा में बीस कोस बस्तर, सात पाली उड़ीसा और सोलह परगना सिहावा के देवी-देवता शिरकत करते हैं। यह परंपरा सदियों पुरानी है, जिसमें देवी-देवताओं को न्यायालय की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।

कटघरे में भगवान! यहां गलती पर देवी-देवताओं को भी मिलती है 'सजा', जानिए  क्यों होता है ऐसा? - Hindi News | Dhamtari godess and godess stand in the  dock and are punished

सजा और न्याय का अनोखा तरीका

भंगाराव माई का मंदिर सदियों पुराना है और इसे देवी-देवताओं के न्यायालय के रूप में माना जाता है। यहां पर न्यायाधीश के रूप में भंगाराव माई विराजमान होती हैं। देवी-देवताओं को दोषी मानने पर उन्हें कटघरे में खड़ा किया जाता है और सुनवाई के बाद दंड भी दिया जाता है। इस परंपरा के अनुसार, यदि गांव में कोई कष्ट या समस्या होती है और देवी-देवता उसका समाधान नहीं कर पाते, तो उन्हें दोषी मानकर सजा दी जाती है।

कोर्ट लगाकर देवी-देवताओं को मिली सजा

सुनवाई के दौरान देवी-देवताओं पर लगाए जाते आरोप 

भंगाराव माई के न्यायालय में सुनवाई के दौरान देवी-देवताओं पर आरोप लगाए जाते हैं। दोषी पाए जाने पर उन्हें बकरी, मुर्गी और अन्य वस्तुओं के साथ गहरे गड्ढे में फेंक दिया जाता है, जिसे कारागार माना जाता है। इस प्रक्रिया में सिरहा, पुजारी, गायता, माझी और पटेल जैसे गांव के प्रमुख लोग शामिल होते हैं, जो आरोपों और दलीलों की गंभीरता से जांच करते हैं।

सभी वर्ग और समुदाय के लोगों की आस्था से जुड़ी परंपरा

यह परंपरा गांव के सभी वर्ग और समुदाय के लोगों की आस्था से जुड़ी हुई है। भंगाराव माई की उपस्थिति में देवी-देवताओं की शिनाख्त की जाती है और उनकी उपस्थिति के साथ दंड सुनाया जाता है। इस साल की यात्रा इसलिए विशेष रही क्योंकि कई पीढ़ियों के बाद देवताओं ने अपना ‘चोला’ बदला है, जो इस परंपरा को और भी महत्वपूर्ण बनाता है।

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