आपको बता दे पहाड़ी हिस्सों से लगातार हो रहे पलायन से जनसंख्या का घनत्व कम हो रहा है। जिसके चलते पहाड़ में विधानसभा की सीटें कम हो रही हैं, सीटें कम होने से विधानसभा में पहाड़ के मुद्दों की पैरवी कम हो जाएगी। राज्य मेें एक लाख की आबादी पर विधानसभा सीटों का निर्धारण किया गया है। नौ पर्वतीय जिलों के 40353 वर्ग किमी क्षेत्रफल में 40 विधानसभा सीटें व चार मैदानी जिलों के 12214 वर्ग किमी क्षेत्रफल में 30 सीटें हैं।
जब 2002 में परिसीमन हुआ तो आबादी घटने की वजह से पहाड़ के नौ जिलों की विधानसभा सीटें 40 से घटकर 34 जबकि मैदान की 30 से बढ़कर 36 हो गई वही 2011 की जनगणना में राज्य के पौड़ी गढ़वाल व अल्मोड़ा जिले में बड़ी संख्या में पलायन होने की तस्वीर उजागर हो चुकी है। पलायन आयोग भी पहाड़ से हो रहे पलायन को लेकर चिंताजनक तस्वीर पेश करती रिपोर्ट जारी कर चुका है। ऐसे में अब यह मुद्दा फिर गर्माता नज़र आ रहा है। विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूरी ने कहा है कि पहाड़ की विधानसभाएं क्षेत्रफल के लिहाज से काफी बड़ी होती हैं, जबकि मैदानी विधानसभा सीटें उसके मुकाबले बहुत छोटी होती हैं। ऐसे में आगामी परिसीमन क्षेत्रफल के आधार पर होना चाहिए। वही मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी कहना है परिसीमन क्षेत्रफल के हिसाब से होना चाहिए। सरकार को सर्वदलीय बैठक बुलाकर इसका हल निकालना चाहिए।
वहीं दूसरी ओर राज्य आंदोलनकारी नेता व भाजपा विधायक विनोद चमोली ने पहाड़ और मैदान के लिए अलग-अलग मानक बनाए जाने पर जोर दिया। राज्य आन्दोलन से बना उत्तराखण्ड क्रान्ति दल का कहना है कि जब भी परिसीमन हो क्षेत्रफल के हिसाब से हो जिससे पहाड़ का विकास हो सके हम सरकार का सहयोग करेंगे। यूकेडी का यह भी मानना है पिछले दिनों विधासभा सत्र में हुए बवाल को दबाने के लिये यह बात की जा रही है।
अब तक केंद्रीय राजनीतिक दलों का विजन मैदान की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार होता है. वहीं, जो क्षेत्रीय दल होता है उसके पास स्थानीय मुद्दों की अच्छी परख रहती है, लेकिन हिमालयी राज्य उत्तराखंड की अवधारणा कहीं न कहीं अब मैदानी इलाकों में सिमट रही है. अब देखना होगा लम्बे समय से क्षेत्रफल के हिसाब से परिसीमन की माँग धरातल पर आ पाती है, सरकार पहाड़ से पलायन रोकने में कितनी सफल होती है आने वाला समय बतायेगा।