दलाई लामा के उत्तराधिकारी पर भारत-चीन में तीखी बहस, केंद्र ने कहा- फैसला सिर्फ परंपरा और दलाई लामा का अधिकार

KNEWS DESK-  अगला दलाई लामा कौन होगा? इस सवाल पर अब केवल तिब्बती समुदाय में ही नहीं, बल्कि भारत और चीन के बीच भी तीखी राजनीतिक और कूटनीतिक बहस छिड़ गई है। चीन द्वारा यह दावा किए जाने के बाद कि भविष्य के दलाई लामा को उसकी मंजूरी लेनी होगी, भारत ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है।

केंद्रीय मंत्री किरेन रीजीजू ने गुरुवार को दो-टूक कहा कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी का फैसला केवल दलाई लामा और स्थापित धार्मिक परंपराओं के आधार पर होगा, न कि किसी सरकार की स्वीकृति से।

दिल्ली में मीडिया से बात करते हुए केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ने कहा, “दलाई लामा को मानने वाले सभी अनुयायियों की यही भावना है कि उत्तराधिकारी तय करने का अधिकार परंपरा और खुद दलाई लामा के पास है। किसी और को इसमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है।”

बुधवार को स्वयं दलाई लामा ने एक बयान में स्पष्ट किया था कि गादेन फोडरंग ट्रस्ट को ही संस्था के भावी उत्तराधिकारी को मान्यता देने का एकमात्र अधिकार होगा। यह ट्रस्ट दलाई लामा द्वारा 2015 में स्थापित किया गया था, और यही भविष्य में दलाई लामा की धार्मिक संस्था को नेतृत्व देगा।

दलाई लामा की इस घोषणा के बाद चीन भड़क गया। चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा कि दलाई लामा का पुनर्जन्म केवल चीन द्वारा निर्धारित “स्वर्ण कलश प्रक्रिया” और “सरकारी अनुमोदन” के नियमों के तहत ही मान्य होगा। चीन का दावा है कि तिब्बत उसका अभिन्न अंग है और धार्मिक उत्तराधिकार भी उसकी निगरानी में होना चाहिए।

भारत सरकार ने चीन के इस दावे को नकारते हुए साफ कर दिया है कि यह पूरी तरह धार्मिक और तिब्बती परंपरा से जुड़ा मामला है, जिसमें किसी राजनीतिक या सरकारी हस्तक्षेप की कोई जगह नहीं है। केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह और रीजीजू 6 जुलाई को धर्मशाला में दलाई लामा के 90वें जन्मदिन समारोह में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करेंगे।

दलाई लामा 1959 में तिब्बत से भागकर भारत आए थे, जब माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन की सेना ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था। तब से वे धर्मशाला में निर्वासित जीवन जी रहे हैं। भारत में लगभग एक लाख तिब्बती शरणार्थी रहते हैं, जो दलाई लामा को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते हैं।

दलाई लामा का उत्तराधिकार अब एक धार्मिक विषय से अधिक एक राजनीतिक प्रतीक बन चुका है। चीन नहीं चाहता कि अगला दलाई लामा तिब्बती स्वतंत्रता आंदोलन का चेहरा बने, जबकि भारत और दुनियाभर में फैले तिब्बती समुदाय चाहते हैं कि यह निर्णय पूरी तरह तिब्बती परंपरा के अनुसार हो।

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