नगर निकाय के चुनावी नतीजे सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव के लिए मुफीद नहीं रहे हैं. परिणाम उस तरह नहीं आये जिनका दावा समाजवादी पार्टी कर रही थी. नतीजों के बाद अखिलेश का बयान भी एक खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं था. ये नतीजे सपा के लिए नयी फ़िक्र पैदा करने वाले हैं. सपा के चुनावी गठबंधनकी असफलता और मुस्लिम वोटो में बिखराव जैसे मुद्दे अखिलेश यादव की पेशानी पर गहरे बल डालने वाले हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा ने राष्ट्रीय लोकदल और आजाद समाज पार्टी के साथ गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा था. चंद्रशेखर आज़ाद के जरिये पश्चिमी इलाकों के दलितों का समर्थन उस तरह से सपा के साथ नहीं आया जिसकी उम्मीद रही होगी. साथ ही जाट वोटो का भी एकतरफा रुझान नहीं बनता दिखाई दिया.
समाजवादी पार्टी की चिंता की दूसरी सबसे बड़ी फ़िक्र की वजह बनी है मुस्लिम वोटर का रुख. एक तरफ तो मायावती ने अपने टिकट पर बड़ी संख्या में मुसलमानों को दिए जिसकी वजह से उसका मूल दलित वोटर भी दुसरे विकल्प तक नहीं मुड़ा , वहीँ दूसरी तरफ सपा को मुसलमान वोटों का नुकसान जरुर उठाना पड़ा. हालाकि इस रणनीति का कोई बड़ा फायदा मायावती को भी नहीं मिला मगर समाजवादी पार्टी का खेल जरुर बिगड़ गया.
मुस्लिम वोटरों ने पूरे प्रदेश में इस बार एक सा व्यवहार नहीं किया. आम तौर पर एक पार्टी के समर्थन में वोट करते दिखने वाले मुस्लिम वोटरों ने इस बार अलग अलग जगहों पर अलग अलग दलों को वोटिग की है. बीते कुछ चुनावो में मुसलमान वोटरों की पहली पसंद समाजवादी पार्टी रही है, लेकिन इस बार असदुद्दीन ओवैसी की एआईएम्आईएम् और आम आदमी पार्टी ने भी मुस्लिम वोटरों में सेंध लगाई है. ओवैसी की पार्टी ने पांच नगर पालिका परिषदों पर कब्जा किया और महानगरों में भी उसके 75 पार्षद जीते हैं. आम आदमी पार्टी ने निकायों के अध्यक्ष पद पर सात जगह जीत हासिल की है और महानगरों में उसके करीब 100 पार्षद भी जीत गए हैं
सपा के मजबूत किले मेरठ में भी ओवैसी का उम्मीदवार विधायक अतुल प्रधान की पत्नी सीमा प्रधान की हार की वजह बन गया. मेयर की यह एक ऐसी सीट थी जिसपर समाजवादी पार्टी सबसे मजबूती से लड़ती दिखाई दे रही थी. मुसलमानों के वोटों का हिस्सा स्थानीय स्तर पर भाजपा के पक्ष में भी इस बार खुल कर गया. पहली बार किसी चुनाव में भाजपा ने बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी भी उतारे थे और उनमे से अधिकांश को जीत हासिल हुयी है. पसमांदा मुसलमानों को रिझाने की कोशिश भाजपा बहुत साढ़े तरीके से कर रही है और इस बार भी 200 से ज्यादा भाजपा प्रत्याशी पसमांदा समाज से ही रहे.
हांलाकि ये कहा जा सकता है कि ये चुनाव बहुत ही स्थानीय मसलों पर होते हैं और इस रुझान को विधान सभा या लोकसभा के वोटिंग पैटर्न से नहीं जोड़ना चाहिए, मगर यदि मुस्लिम वोटरों के रुख में आया ये बदलाव इसी तरह बना रहा तो आगामी लोकसभा चुनावो में समाजवादी पार्टी को परेशानी जरुर होगी. राजनीतिक विश्लेषक तो यह भी कहा रहे हैं कि इस साल के अंत में होने वाले 5 राज्यों के चुनावो में कांग्रेस ने यदि अच्छा प्रदर्शन कर दिया तो लोकसभा के चुनावो में इस संभावना से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि मुस्लिम वोटर कांग्रेस की तरफ वापस लौटता दिखाई दे.