KNEWS DESK – सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह के मामले में अपने पिछले फैसले पर पुनर्विचार करने से इनकार कर दिया है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि उसके द्वारा 2023 में दिए गए फैसले में कोई खामी नहीं है और इसे कानून के अनुरूप माना गया है, इसलिए इसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप उचित नहीं होगा। साथ ही, कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को वैध मानने की मांग करने वाली पुनर्विचार याचिकाओं को भी खारिज कर दिया है।
2023 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2023 में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया था। शीर्ष अदालत की संविधान पीठ ने 3-2 के बहुमत से यह निर्णय लिया था और इसे विधायिका का क्षेत्राधिकार करार दिया था। कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए संसद को कानून बनाने का अधिकार है, न कि न्यायपालिका को।
पुनर्विचार याचिकाओं पर कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस बीवी नागरत्ना, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस दीपांकर दत्ता शामिल थे, ने पुनर्विचार याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया। पीठ ने कहा कि 2023 के फैसले में कोई खामी नहीं है, और यह पूरी तरह से कानून के अनुसार है, इसलिए इसमें पुनर्विचार करने का कोई आधार नहीं है।
समलैंगिक विवाह के खिलाफ याचिकाएं
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में कुल 20 याचिकाएं दाखिल की गई थीं। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि समलैंगिक विवाह को विशेष विवाह अधिनियम के तहत कानूनी रूप से मान्यता दी जाए। उन्होंने यह भी कहा था कि समलैंगिक जोड़ों को अपने रिश्तों को विवाह के रूप में मान्यता प्राप्त होनी चाहिए, ताकि वे समान अधिकारों का आनंद ले सकें।
सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण रुख
अक्टूबर 2023 में दी गई संविधान पीठ की निर्णय में समलैंगिक विवाह को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने की याचिका खारिज कर दी गई थी। कोर्ट ने कहा था कि विवाह कोई सार्वभौमिक अधिकार नहीं है और इसे बिना शर्त नहीं लिया जा सकता। समलैंगिक जोड़े इसे अपने मौलिक अधिकार के रूप में दावा नहीं कर सकते हैं, और यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है।
समलैंगिक विवाह पर राष्ट्रीय बहस
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मुद्दे पर देशभर में बहस जारी है। कुछ हिस्सों में इसे समाज की प्रगति और समानता की दिशा में एक कदम माना जा रहा है, जबकि अन्य इसे पारंपरिक सामाजिक ढांचे के खिलाफ मानते हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अभी के लिए इस मुद्दे को न्यायिक दृष्टिकोण से समाप्त करता है और इसे संसद के विवेक पर छोड़ता है।