KNEWS DESK… धीरे धीरे श्रावण मास की पुरानी झूलों की परंपरा शहरों और कस्बों के साथ साथ ग्रामीण अंचल से भी समाप्त होती जा रही है। आज से करीब दो दशक पूर्व सावन महीने में चारों ओर बड़े-बड़े वृक्षों की डालों पर लंबे-लंबे झूले पड़े नजर आते थे झूला झूलते समय महिलाएं सावन के मधुर गीत गाते हुए दिखाई पड़ती थी। सावन महीने की प्रतीक्षा अपनी ससुराल में बैठी लड़कियां बड़ी बेसब्री के साथ किया करती थी ।उस समय मोहल्लों में पुराने नीम बरगद आज के पेड़ मौजूद रहते थे धीरे-धीरे मनुष्य की जरूरतें बढ़ी और इन पुराने पेड़ों को भी जरूरत पड़ने पर कटवा डाला गया आज स्थिति यह है कि पेड़ों पेड़ों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। जिन पेड़ों के नीचे बैठकर कई पीढ़ियों ने अपनी जिंदगी गुजार दी आज उन्हीं छायादार वृक्षों की तलाश में लोग भटकते हुए नजर आ रहे हैं।
दरअसल आपको बता दें कि सावन का महीना यूं तो प्रकृति के द्वारा दी जाने वाली उन सभी व्यवस्थाओं से परिपूर्ण होता है जिससे मनुष्य क्या पशु-पक्षी भी सुख की अनुभूति करते हैं तथा इस महीने में पिछले महीनों से व्यथित लोगों को राहत महसूस होती है। इसके साथ-साथ इस महीने में श्री जगन्नाथ यात्रा गुरु पूर्णिमा नाग पंचमी रक्षाबंधन के त्योहारों के साथ-साथ नवविवाहिताओं के लिए सबसे सुखमय होता है अर्थात अपने पीहर के घर पर होता है। और उनके मन में उमंग सी बढ़ जाती और खुशमिजाज होकर अपने अपने अंदाज में यही मल्हार के माध्यम से कहती हैं कि झूला तो पड़ गयो अमवा की डार पै जी” गाती है तो कोई कच्चे नीम की निबौरी सावन जल्दी अइयो रे” अम्मा दूर ना पठायो भैया नहीं बुलाइए रे” आदि गीत ग्रामीण अंचलों में अपनी खुशबू बिखेरते थे ।लेकिन आज समय ने ऐसी करवट बदली है कि झूला व सावन के गीत लोगों के लिए अब किस्से-कहानियों की बातें हो चुके हैं। लोग बरसो पुरानी परंपराओं को धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं। सावन में जहां सावन के गीत झूला गीत सुनने को लोगों के कान तरस रहे हैं वही अब आल्हा भी सुनाई नहीं पड़ता है।
बता दें कि वर्षों पहले लोग सावन महीने में एक जगह एकत्र होकर वीर रस से सराबोर आल्हा पढ़ते थे। समय के बदलते परिवेश में अब तो आल्हा पढ़ना दूर चार लोग एक साथ बैठने में भी कतराते हैं। तमाम बुजुर्गों का कहना है कि उनके जमाने में गांव के अंदर पेड़ों पर इतने अधिक झूले पढ़ते थे कि रास्तों से गुजरने वाले राहगीरों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ता था बागों मैं भी झूले पड़ते थे। आज शहर कस्बा की तो दूर की बात है गांवों तक में यह सब बातें सपने के सामान लगती हैं। बुजुर्ग लोग बड़ी निराशा के साथ कहते हैं यह हमारी भारतीय परंपरा के विलुप्त होने के लक्षण है। आज के नौजवान युवकों युवतियों मैं इन सब चीजों का कहां चाव रह गया है झूला झूल झूल कर गीत गाने या फिर अपने पूर्वजों की कीर्ति का बखान करने का। आज तो युवक-युवतियां फिल्मी दुनिया की ओर आकर्षित है फिल्में देखकर उनके अर्थ विहीन गीत गाना उनकी परंपरा बनती जा रही है। शिवली कस्बे के बुजुर्ग बाबा रामपुरी गोस्वामी का कहना है कि आज मानव वृक्षों का दुश्मन बन बैठा है जबकि जबकि वृक्ष तो हमारा सब कुछ है आज वातावरण इतना प्रदूषित क्यों हो गया है क्योंकि वृक्ष नहीं है। वृक्ष ही हमारे सावन के झूलों की संस्कृत से जुड़े हैं सावन का लगभग पूरा महीना समाप्त होने वाला है लेकिन क्षेत्र में अभी तक कहीं भी झूले पड़े नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। पुराने लोग इस भारतीय संस्कृति लुप्त होने से बड़े दुखी नजर आ रहे हैं।